Friday, May 25, 2018


                  नमस्कार साथियों ...  हर दिन हम अपने कई भावों को  विचारों  को लिखते हैं पढते हैं आज इसी रचना की प्रेरणा पर ही कुछ लिखने की कोशिश की है। आशा करती हूँ कि आप सभी को अच्छा लगेगा।       
रचना की प्रेरणा
मानव कि नैसर्गिक प्रवृत्तियों में भावात्मक स्तर पर कहने और सुनने कि प्रवृत्ति प्रबल होती है। यह जन्मजात प्रवृत्ति अपने को प्रकट करने के लिए उत्सुक रह्ती है। समाज, समय, संदर्भ और स्थिति के अनुसार यह प्रवृत्ति अपना आकार-प्रकार और रूप धारण करती है। मानव अपनी भावनाओं और वेदनाओं को अपने परिवार तथा समाज के उन व्यक्तियों के सामने प्रकट करता है, जिनसे वह निकट संपर्क में आता है। रचनाकार भी एक सामन्य आदमी की भाँति सामाजिक प्राणी होने के नाते इन सभी स्थितियों से गुजरता है। वह जो कुछ भी देखता है, सुनता है, भोगता है, उसे अपने ढंग से उसे अपने एकांतिक क्षणों में अभिव्यक्त करता है।
अपने किसी अनुभव को लेकर अथवा किसी घटना से प्रेरित होकर जब रचना का सृजन होता है, तब वह एक प्रकार से वास्तविकता को गल्प में बदलना होता है। यथार्थ को रचना का रूप देना होता है। यह रचनाकार की अपनी निजी ज़िंदगी की बात है, उसके आंतरिक संघर्ष की बात है, जिसमें वह रचना लिखने की प्रक्रिया से जूझ रहा होता है। आत्मसंघर्ष के द्वारा रचना एकांत के क्षणों की सहचरी बन जाती है ।
मानव-हृदय में गहरी वेदना के साथ कुछ सपने भी होते हैं। सपनों में ऐंद्रिय सुख की मांसलता है, तो यथार्थ में वेदना की आंतरिक टीस और जल्द- से- जल्द सब-कुछ ठीक हो जाने की चाह। यह आत्म संघर्ष रचना को आत्मीयता प्रदान करता है, जिसे रचनाकार कागज पर उकेरता है ।  
रचना की मूल प्रेरणा जीवन से ही मिलती है। रचना की तह में कहीं- न-कहीं, कोई-न-कोई जाना-पहचाना पात्र अथवा कोई वास्तविक घटना होती है। मूलतः रचना कल्पना की उडान नहीं होती। रचना केवल आत्माभिव्यक्ति में लिखी जाती है, ऐसा नहीं है। यह जीवन का कोई सत्य उद्घाटित करती है। यह सामाजिक यथार्थ का और उसके परिणाम से विकसित मनोभावों अंतर्विरोध या अंतर्द्वंद्व प्रस्तुत करती है। सचेत रूप से किसी लक्ष्य को लेकर, उसे न लिखा गया हो, पर रचना जीवन की भी उपज होती है।
संवेदना और  अनुभूति कविता की महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ हैं। रचनाकार अपने-आप को परिवेश के संदर्भ में जानने-समझने, परखने तथा पाने की कोशिश में कुछ संवेदनाओं को, भावों को अपने अंदर उमड्ते-घुमडते पाता है,  उनको द्वंद्व  करते देखता है, उन्हीं भावों को कागज पर उकेर देने से रचना का जन्म होता है । अनेक परस्पर विरोधी वृत्तियों के बीच मनुष्य अपनी ज़िंदगी को बेहतर बनाना चाहता है,  रचना अनेक भावों को उतारने का प्रयास है।

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