Tuesday, June 12, 2018





कागज़ का टुकडा


सागर अलमारी में जल्दी-जल्दी कुछ ढूंढने में लगा हुआ था उसे काम में लापरवाही और समय की हेर-फेर से सख्त नफरत थी। इसी कारण वह बहुत गुस्से में था। ढूंढते-ढूंढते अचानक ऊपरी खाने से कुछ कागज़ात नीचे गिरकर बिखर गए।
 उफ….. क्या मुसीबत है अब इन्हें समेटने में समय लग जाएगा सोचते-सोचते - सागर नीचे झुक कर कागज़ात समेटने लगा ।  तब अचानक एक कागज़ का पुलिन्दा उसके हाथ लगा । थोडे मटमैले से हो रहे थे और पुराने भी हो गए थे । जिज्ञासावश उसने उसे खोला तो उसकी आंखें अतीत को देखने लगी । कुछ अतीत की यादों का दर्द ऐसा होता है जिसे समय का मलहम भी नहीं भर पाता । वैसे भी स्मृतियों को यादों की टहनी से कुरेदा जाए तो वह उडने लगती हैं । सागर ने एक कागज़ निकाल कर पढा,---- लिखा था—

प्रिय
 पता नहीं क्या हो गया है मुझे । शायद पागल हो गई हूं बस एक आप के ख्याल के सिवा दूजा कुछ ख्याल आता ही नहीं और कुछ सूझता ही नहीं । और एक आप हैं कि समझते ही नहीं या फिर समझ कर भी तटस्थ बने रहते हैं आपकी तटस्थता खलती है पर समय के साथ मैं भी इस तटस्थ्ता से तारतम्य  करने की कोशिश करूंगी।………..

एक और पत्र ---


प्रिय
बहुत बहुत प्यार
          महसूस किया तुम्हें तो गीली हुई पलकें
ये आंसू भी अज़ीब होते हैं कभी भी ढुलक जाते हैं । आज शाम से मन कुछ अधिक ही उद्विगन पर अचानक से ऐसा होना समझ की सीमा से परे है । तुम्हें देखने की इच्छा दिन पर दिन बलवती होती जा रही है। पर तुम शायद समय बंधन में बंधे हुए हो जितनी जल्दी हो सके आ जाओ -------

ऐसे ही अनेक छोटे बडे खत । स्वाति के द्वारा लिखे हुए खत सागर के नाम----

सागर को आज महसूस हुआ कि उसकी तटस्थता के कारण समय ने उससे बहुत कुछ छीन लिया। सागर को बीते दिन आ गए-----

उस कस्बे में सागर के पिता का अपना कारोबार था। जाति से ब्राह्मण और ऊंच-नीच को मानने वाले ऊंचे ओहदे का दबदबा भी था। बेटे के प्रति कुछ अधिक ही स्नेह, अनुराग का भाव रखते थे । साथ ही अपने बेटे पर उन्हें बहुत गर्व भी था क्यों न हो उस कस्बे में एक उनका बेटा ही शहर में पढ रहा था । सुदर्शन, सुशील, और सौम्य सागर पिता की किसी भी बात का विरोध नहीं करता । हां कभी-कभी उसे भी कोफ्त होती पर वह चुप कर जाता ।
सागर के घर के पास ही था स्वाति का घर । सेवानिवृत अध्यापक के बेटी । जाति से वे भी ब्राह्मण थे और आचार-विचार और रीति-रिवाज के पक्के। स्वाति उनकी चौथी बेटी थी। कार्यकाल में उन्होंने अपनी दोंनो बेटियों की शादी कर दी थी और सेवानिवृति के बाद मिले पैसों से तीसरी बेटी को भी विदा कर दिया था। उन दिनों स्वाति बहुत छोटी थी। परन्तु अब वह भी विवाह योग्य हो गई  थी । हालांकि वह अभी बारहवीं में ही पढ रही थी फिर भी पिता विवश और लाचार हुए जा रहे थे । स्वाति में आगे पढने की इच्छा बडी बलवती थी परन्तु वह पिता से कहने में लाचार थी वह भी पिता के आर्थिक स्थिति से अवगत थी न ।
सागर के घर में उसका आना-जाना प्रायः होता था । एक तो सागर के माता-पिता अकेले रहते और दूजे स्वाति अपनी सुघड़ता से सागर की मां के अनेक कार्य करा देती थी इस कारण भी। सागर के शहर से लौटने पर कभी पूडी , पनीर की सब्जी बना देती तो कभी दहीबडे । बहुत ही सहज और सामान्य परिचय था ।
इस बार जब सागर घर आया तो उसने एक विशेष बात गौर की, आजकल स्वाति घर पर कम आती थी। उसने मां से पूछा मां बोली –“ हां बेटा आजकल परेशान है इम्तिहान सर पर है और उसे अंग्रेजी और गणित में बहुत परेशानी हो रही है इस कारण घंटो सिर खपाती रहती है ।
मां इसमें मुश्किल क्या है आजकल तो अनेक लोग ट्यूशन लेते हैं किसी से भी ट्यूशन ले लेगी तो ठीक हो जाएगा,  सागर ने कहा
वो तो ठीक है बेटा पर तुम तो मास्टरजी की हालत जानते ही हो ऐसी हालत में वह इस विषय पर कैसे सोच सकती है ।
हूं….. सागर एक हुंकार भरकर चुप हो गया। शाम को वह मास्टरजी से मिलने घर गया मास्टरजी बाहर ही बैठे हुए थे। 
नमस्ते मास्टरजी ।  सागर ने कहा
अरे सागर बेटा खुश रहो, कब आए ?
बस सुबह ही आया हूं ।
स्वाति नहीं है क्या ?
अंदर है बेटा आजकल थोडी परेशान है स्वातिइइइ----- मास्टरजी ने आवाज़ लगाई । स्वाति चुपचाप आकर दरवाजे के पीछे खडी हो गई । सागर ने आज ही उसे ध्यान से देखा । गोरा रंग कुछ कुम्हला-सा गया था चेहरा थका-थका सा लग रहा था। यूं तो सागर उसे अनेकों बार अपने घर में देख चुका था परन्तु वह सब क्षण मात्र ही था कभी उसके बनाए व्यंजनों की तारीफ़ या फिर कोई फरमाईश । यूं भी सागर बहुत ही तटस्थ रहता । अधिक बात करना उसका स्वभाव नहीं था ।
स्वादिष्ट भोजन से मन खुश कर देने वाली स्वाति आज थोडी उदास सी खडी थी सागर को थोडा सा बुरा लगा उसने पूछा  ---- स्वाति आज कुछ नहीं खिलाओगी क्या ??? स्वाति एक फीकी से हंसी हंस दी।
स्वाति इतना परेशान होने की जरूरत नहीं है तुम चाहो तो मैं तुम्हें अंग्रेजी और गणित पढा दिया करूंगा अभी मैं यहां दस दिनों तक हूं । सागर ने कहा
सागर पढा लिखा तो था  ---- पर स्वयं सागर को बहुत बाद में पता चला कि वह कितना पढा लिखा था ।
स्वाति के चेहरे पर चमक आ गई “ सच आप मुझे पढा देंगें तब तो जरूर मैं अच्छे नंबरों से पास हो जाऊंगी”। मास्टरजी को भी थोडा सकून मिला।
उन्हीं दिनों सागर और स्वाति रूबरू हुए। रोज शाम को स्वाति सागर से पढ लिया करती । जिसके बदले में वह कभी कचौडी तो कभी गुलाब जामुन तो कभी  समोसे या फिर कोई और व्यंजन बना कर सागर को खुश कर देती।
यूं तो कोई विशेष लगाव जुडाव सागर को नहीं था बस औपचारिकतावश पढा दिया करता । दस दिनों बाद सागर को जाना था } स्वाति से मिल कर उसे इम्तिहान के लिए शुभकामनाएं देकर सागर चला गया।
स्वाति के इम्तिहान समाप्त हो गए । आगे की पढाई की कोई गुंजाइश नहीं थी इस कारण घर पर ही रहती । बस कुछ समय के  लिए सागर के घर जाती वरना अधिकतर समय घर पर ही गुजार देती ।
सागर का बडे दिनों बाद घर आना हुआ । आने पर ज्ञात हुआ कि स्वाति आगे नहीं पढ रही है और सारा समय यूंही निकाल देती है । वैसे भी वह समय को व्यर्थ करना एक बडा गुनाह मानता। इसी कारण वश वह शाम को मास्टरजी से मिलने गया । जब उसने इस विषय पर चर्चा छेडी, तभी उसे पता चला कि मास्टरजी वास्तव में क्या सोचते हैं । मास्टरजी ने कहा –
 “ अब क्या पढाना अधिक पढा दूंगा तो शादी ब्याह में अडचनें आएंगी । अधिक पढा लिखा दूल्हा ढूंढना पडेगा और फिर दहेज भी अधिक देना पडेगा अब मेरी इतनी हैसियत भी नहीं है”।
ऐसा नहीं है मास्टरजी अब जमाना बदल रहा है आजकल कई नौजवान पढी-लिखी लडकी चाहते हैं और दहेज का भी विरोध करते हैं । और स्वाति भी तो घर में छोटी कक्षाओं की ट्यूशन करके समय का सदुपयोग करते हुए अपनी पढाई जारी रख सकती है । वैसे वह घर पर रह कर दूर विद्या से भी आगे पढ सकती है । उसकी पढाई भी हो जाएगी और वह आत्म निर्भर भी । आत्म निर्भरता, आत्म विश्वास को बढाता है । आप उसे पढने दीजिए। सब ठीक हो जाएगा आप परेशान न होंवें।
सागर की कोशिशों से मास्टरजी  स्वाति को आगे पढाने के लिए मान गए। और यहीं एक नए अध्याय की शुरूआत भी हुई ।
सागर की दिलचस्पी ने मास्टरजी के मन में एक अनजानी चाह जगा दी। स्वाति के मन में कई दिनों से ऐसे भाव उमड-घुमड रहे थे। परन्तु सागर की तटस्थता को देखकर उसे कुछ कहने में भय –सा लगता ।
यूं भी सागर दो टूक बात कहने का आदि था और दूसरों से भी यही अपेक्षा रखता ताकि कई बातें की जा सके परन्तु स्वाति को कुछ भी कहना इतना आसान नहीं होता वैसे भी लडकियां थोडी संकोची स्वभाव की होती है जिससे उन्हें सीधे मुद्दे की बात कहना कठिन लगता है ।
     इस रिश्ते में कोई दिक्कत तो थी नहीं क्योंकि सागर की मां को भी सुंदर सुशील स्वाति पसंद ही थी । और अब सागर की दिलचस्पी ने बात को थोडा और आगे बढा दिया था।  दो –चार दिन रहकर सागर चला गया। जाने से पहले वह स्वाति से मिलने आया । वह ऊंगली पर दुपट्टा लपेटती, पैर के अंगूठे से जमीन कुरेदती, नज़र झुका कर चुपचाप खडी रही । कुछ नहीं बोल पाई और सागर चला गया स्वाति खडी उसे देखती रही कि वह पीछे मुड कर देखेगा पर नहीं सागर चला गया ।
 स्वाति की पढाई शुरू हो गई । अनेकों बार सागर घर लौटा और स्वाति से भी मिला । स्वाति और सागर के बीच दूरियां कम होने लगी थी । स्वाति के पैर जमीन पर ही नहीं पडते थे ।
फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि सब उलट गया स्वाति का विवाह किसी और से कैसे हो गया । सागर को इस बात का पता तब चला कि जब सगाई को केवल चार दिन शेष रह गए थे अब पिताजी से कैसे बात करूंगा यह सोच कर उसने मां से बात की और जो कुछ भी मां ने बताया, सुनकर उसकी सारी खुशियां खत्म हो गई । बात कुछ यूं हुई कि
 जब  मास्टरजी ने सागर के घर बात चलाई तब कोई दिक्कत नहीं थी सब ठीक ही लग रहा था । परन्तु अचानक से सागर के पिता को यह रिश्ता ठीक नहीं लगने लगा । उन्हें दहेज कम मिलने की उम्मीद तो थी ही फिर भी उन्होंने सागर की इच्छा के आगे इस रिश्ते को स्वीकारा तो था पर अब उन्हें कुंडली में दोष दिखने लगा था ।
उनका कुंडली पर इतना विश्वास था कि वे हर बार सागर के जाने से पहले समय, दिन, तारीख और नक्षत्र सभी देख कर ही सागर को जाने देते । स्वाति की कुंडली को उन्होंने कईयों को दिखया । जितने मुंह उतनी बातें कोई कहता सब ठीक है, तो कोई कहता यह शादी होगी तो दोंनो को एक साथ कई तकलीफ़े सहनी पडेगी, तो कोई कहता कि संतानोत्पत्ति में बाधा आएगी विकलांग संतान हो सकती है, तो कोई कहता लडकी का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहेगा। इस तरह पिता की रूढिवादिता और अंधविश्वास ने इस रिश्ते को अधर में लटकाए रखा।
 सागर की मां ने बहुतेरा समझाया कुंडलियां जिन्दगी का निर्णय नहीं लेती वे तो बस एक मार्ग दिखाती हैं । खुशी और दुःख तो हमारे स्वभाव में निहित हैं हमारे अपने मन के कारण हैं । बच्चे खुश रहेंगे दोंनो एक दूसरे को पसंद करते हैं अपने आप को , एक दूसरे को समझ कर संभाल  लेंगे। एक कागज़ के टुकडे को दोंनो की जिन्दगी का निर्णय लेने का अधिकार न दें । लडकी अच्छी है सागर को भी पसंद है घर में घुल-मिल कर रहेगी ---- पर नहीं एक कागज़ के टुकडे ने ही उनकी जिन्दगी का निर्णय लिया और पिता ने रिश्ता लौटा दिया
      सागर ने कुछ नहीं कहा यही आश्चर्य की बात रही । शायद कहीं अनजाने में वह भी इन सब बातों पर यकीन करता था या पिता को नाराज़ नहीं करना चाहता था या पिता से डरता था। पता नहीं पर वह चुप्पी साध गया।
मास्टरजी थोडे नाराज़ थोडे क्रोधित पर मजबूर से हो रहे और उन्होंने स्वाति की शादी कहीं और तय कर दी। उसे अच्छा घर-परिवार और वर मिला वह खुश रहेगी इसका सागर को विश्वास हुआ ।
जिन्दगी अपने हिसाब से चलने लगी थी । सागर का अब कस्बे में आने का मन नहीं करता। बार-बार वह पिता को दोषी मानता । अपने नसीब को खोटा समझता। यूं ही दिन बीतने लगे थे। स्वाति से वह दुबारा नहीं मिल सका । परन्तु करीब १० साल बाद वह जब घर आया, तब तीज के अवसर पर स्वाति भी घर आई हुई थी । साथ में उसकी खूबसूरत बेटी भी थी । सागर को मां ने खबर दी ।
सागर का मन एक बार फिर से स्वाति से मिलने का हुआ पर मन में चोर भी छुपा था परन्तु उसे यही ख्याल आया कि स्वाति उसकी मजबूरी समझ पाएगी और उसे माफ़ कर देगी। एक बार तो स्वाति से मिलकर उसे स्थिति से अवगत कराना ही चाहिए यही सोच कर वह स्वाति से मिलने गया।
 सागर को देख स्वाति धीमे से हंस दी । सागर को लगा जैसे उसकी हंसी व्यंग्यात्मक हो । सागर ने देखा भारी साडी और भरी मांग में स्वाति बहुत खुश और खूबसूरत लग रही थी। सागर ने पूछा कैसी हो?
बहुत खुश मेघ जी बहुत अच्छे इंसान है समझदार समय की नाजुकता को समझने वाले संवेदन शील इंसान है मन को समझते हैं और स्वभाव से नरम हैं मैं वास्तव में बहुत खुशनसीब हूं  
खुशी हुई जान कर कि तुम खुश हो । मैं ही बदनसीब हूं पिताजी ने मेरा जीवन ही बरबाद कर दिया । सिर्फ़ चार दिन थे तब मुझे समाचार मिला समय ही नहीं दिया ----
नहीं सागर -----बीच में ही स्वाति बोल पडी---- आप गलत कह रहें हैं दूसरों पर दोषारोपण करके आप स्वयं को सही साबित करने की गलत कोशिश कर रहें हैं । आप तो पढे लिखें हैं न ---
स्वाति का यह वाक्य सागर को तीर की तरह चुभा।
खूब दुनिया भी देखी है फिर कैसे पिता की बातों को मान बैठें। क्या आप को नहीं पता था कि मैं आप का ही इंतजार कर रही हूं । होने को तो क्षणों में भी बहुत कुछ हो सकता है आप के पास तो चार दिन थे । आप अपनी बात कह सकते थे, पिता को समझा सकते थे, समय की चाल दिखा सकते थे पर आप हमेशा की तरह तटस्थ रहे । आप भी एक कागज़ के टुकडे पर इतना विश्वास कर बैठें कि हमारे प्यार की, सामंजस्य की सारी बातें आप को बेमानी लगने लगी । आप तो मेरा स्वभाव जानते थे, मेरे चाल-चलन से वाकिफ़ थे रहन –सहन से परिचित थे फिर भी आप ने एक कागज़ के टुकडे के द्वारा लिए गए निर्णय  को ही अहमियत दी । आप ने ऐसी भूल कैसे की??? खैर अब तो आप खुश है न ???? इस बार वास्तव में स्वाति ने व्यंग्य ही किया । स्वाति की इस बात को सुनकर सागर फिर अतीत में लौट गया।
स्वाति की शादी के एक –दो साल बाद सागर की भी शादी हो गई । पिता ने बहुत देखभाल कर कुंडली का मिलान कर बहू पसंद की । दहेज भी अच्छा-खासा मिला और बहू भी सुंदर । सागर भी बहुत खुश था । परन्तु कहते हैं न कि दूर के ढोल सुहावने होते हैं । बहू के तौर –तरीके सागर के घर में नहीं जमें । बहू को कोई भी बात अच्छी ही नहीं लगती थी। सागर खाने-पीने का शौकीन तो वह परहेज पर विश्वास करती ताकि शारीरिक सुदंरता बनी रहे। रीति-रिवाज को ढकोसला कहती । सुबह देर तक मुंह ढांपे सोती रहती और काम –काज से जी चुराती घूमने-फिरने को तैयार मिलती । कहा जाए तो बडे घर की बडे नखरे वाली । सागर की जिन्दगी नर्क बन गई । मां –पिता के साथ रहना उसे गवारा नहीं था और सागर अलग रहने को तैयार नहीं था । दिन पर दिन कलह बढता ही गया । साथ ही सागर का पिता पर क्रोध बढता गया मां से भी नाराज़ रहने लगा । अपने आप को हालात और परिस्थितियों का मारा समझ टूटने लगा ।
मां ------ स्वाति की बेटी की आवाज़ सुनकर सागर चौंका । वह स्वाति को बुलाने आई थी । स्वाति ने सागर से जाने की इजाज़त मांगी सागर ने मौन सहमति दे दी। अब उस के पास कहने सुनने के लिए कुछ भी शेष नहीं बचा था। वह भी चुपचाप थके कदमों से बाहर निकल पडा । उसके कानों में स्वाति के अंतिम बोल गूं ज रहे थे।
विद्या विनयं ददाति । विद्या हमें विवेक शील विनय शील और समय के साथ चलना सिखाती है । समय के साथ बदलना और जीना सिखाती है पर आप कूपमंडूक ही बने रहे तो इसमें किसी और का क्या दोष । आप किसी और को दोष देकर अपने आप को सही साबित करने की भूल न ही करें तो अच्छा है ।
सच ही कहा स्वाति ने उसने केवल हालात और पिता को ही दोषी माना उसने तो कोई भी प्रयत्न ही नहीं किया । सागर में गहरे तल में ही स्वाति मोती छिपी होती है गहरे डुबकी लगाने वालों को ही वह मिलती है। समय के साथ कदम बढाते हुए परिवर्तनों को सही अर्थों में स्वीकारना अपनी खुशियों को पाने का सही मार्ग है।
सागर को इसका ज्ञान हुआ, पर अब बहुत देर हो चुकी थी।