Tuesday, June 12, 2018





कागज़ का टुकडा


सागर अलमारी में जल्दी-जल्दी कुछ ढूंढने में लगा हुआ था उसे काम में लापरवाही और समय की हेर-फेर से सख्त नफरत थी। इसी कारण वह बहुत गुस्से में था। ढूंढते-ढूंढते अचानक ऊपरी खाने से कुछ कागज़ात नीचे गिरकर बिखर गए।
 उफ….. क्या मुसीबत है अब इन्हें समेटने में समय लग जाएगा सोचते-सोचते - सागर नीचे झुक कर कागज़ात समेटने लगा ।  तब अचानक एक कागज़ का पुलिन्दा उसके हाथ लगा । थोडे मटमैले से हो रहे थे और पुराने भी हो गए थे । जिज्ञासावश उसने उसे खोला तो उसकी आंखें अतीत को देखने लगी । कुछ अतीत की यादों का दर्द ऐसा होता है जिसे समय का मलहम भी नहीं भर पाता । वैसे भी स्मृतियों को यादों की टहनी से कुरेदा जाए तो वह उडने लगती हैं । सागर ने एक कागज़ निकाल कर पढा,---- लिखा था—

प्रिय
 पता नहीं क्या हो गया है मुझे । शायद पागल हो गई हूं बस एक आप के ख्याल के सिवा दूजा कुछ ख्याल आता ही नहीं और कुछ सूझता ही नहीं । और एक आप हैं कि समझते ही नहीं या फिर समझ कर भी तटस्थ बने रहते हैं आपकी तटस्थता खलती है पर समय के साथ मैं भी इस तटस्थ्ता से तारतम्य  करने की कोशिश करूंगी।………..

एक और पत्र ---


प्रिय
बहुत बहुत प्यार
          महसूस किया तुम्हें तो गीली हुई पलकें
ये आंसू भी अज़ीब होते हैं कभी भी ढुलक जाते हैं । आज शाम से मन कुछ अधिक ही उद्विगन पर अचानक से ऐसा होना समझ की सीमा से परे है । तुम्हें देखने की इच्छा दिन पर दिन बलवती होती जा रही है। पर तुम शायद समय बंधन में बंधे हुए हो जितनी जल्दी हो सके आ जाओ -------

ऐसे ही अनेक छोटे बडे खत । स्वाति के द्वारा लिखे हुए खत सागर के नाम----

सागर को आज महसूस हुआ कि उसकी तटस्थता के कारण समय ने उससे बहुत कुछ छीन लिया। सागर को बीते दिन आ गए-----

उस कस्बे में सागर के पिता का अपना कारोबार था। जाति से ब्राह्मण और ऊंच-नीच को मानने वाले ऊंचे ओहदे का दबदबा भी था। बेटे के प्रति कुछ अधिक ही स्नेह, अनुराग का भाव रखते थे । साथ ही अपने बेटे पर उन्हें बहुत गर्व भी था क्यों न हो उस कस्बे में एक उनका बेटा ही शहर में पढ रहा था । सुदर्शन, सुशील, और सौम्य सागर पिता की किसी भी बात का विरोध नहीं करता । हां कभी-कभी उसे भी कोफ्त होती पर वह चुप कर जाता ।
सागर के घर के पास ही था स्वाति का घर । सेवानिवृत अध्यापक के बेटी । जाति से वे भी ब्राह्मण थे और आचार-विचार और रीति-रिवाज के पक्के। स्वाति उनकी चौथी बेटी थी। कार्यकाल में उन्होंने अपनी दोंनो बेटियों की शादी कर दी थी और सेवानिवृति के बाद मिले पैसों से तीसरी बेटी को भी विदा कर दिया था। उन दिनों स्वाति बहुत छोटी थी। परन्तु अब वह भी विवाह योग्य हो गई  थी । हालांकि वह अभी बारहवीं में ही पढ रही थी फिर भी पिता विवश और लाचार हुए जा रहे थे । स्वाति में आगे पढने की इच्छा बडी बलवती थी परन्तु वह पिता से कहने में लाचार थी वह भी पिता के आर्थिक स्थिति से अवगत थी न ।
सागर के घर में उसका आना-जाना प्रायः होता था । एक तो सागर के माता-पिता अकेले रहते और दूजे स्वाति अपनी सुघड़ता से सागर की मां के अनेक कार्य करा देती थी इस कारण भी। सागर के शहर से लौटने पर कभी पूडी , पनीर की सब्जी बना देती तो कभी दहीबडे । बहुत ही सहज और सामान्य परिचय था ।
इस बार जब सागर घर आया तो उसने एक विशेष बात गौर की, आजकल स्वाति घर पर कम आती थी। उसने मां से पूछा मां बोली –“ हां बेटा आजकल परेशान है इम्तिहान सर पर है और उसे अंग्रेजी और गणित में बहुत परेशानी हो रही है इस कारण घंटो सिर खपाती रहती है ।
मां इसमें मुश्किल क्या है आजकल तो अनेक लोग ट्यूशन लेते हैं किसी से भी ट्यूशन ले लेगी तो ठीक हो जाएगा,  सागर ने कहा
वो तो ठीक है बेटा पर तुम तो मास्टरजी की हालत जानते ही हो ऐसी हालत में वह इस विषय पर कैसे सोच सकती है ।
हूं….. सागर एक हुंकार भरकर चुप हो गया। शाम को वह मास्टरजी से मिलने घर गया मास्टरजी बाहर ही बैठे हुए थे। 
नमस्ते मास्टरजी ।  सागर ने कहा
अरे सागर बेटा खुश रहो, कब आए ?
बस सुबह ही आया हूं ।
स्वाति नहीं है क्या ?
अंदर है बेटा आजकल थोडी परेशान है स्वातिइइइ----- मास्टरजी ने आवाज़ लगाई । स्वाति चुपचाप आकर दरवाजे के पीछे खडी हो गई । सागर ने आज ही उसे ध्यान से देखा । गोरा रंग कुछ कुम्हला-सा गया था चेहरा थका-थका सा लग रहा था। यूं तो सागर उसे अनेकों बार अपने घर में देख चुका था परन्तु वह सब क्षण मात्र ही था कभी उसके बनाए व्यंजनों की तारीफ़ या फिर कोई फरमाईश । यूं भी सागर बहुत ही तटस्थ रहता । अधिक बात करना उसका स्वभाव नहीं था ।
स्वादिष्ट भोजन से मन खुश कर देने वाली स्वाति आज थोडी उदास सी खडी थी सागर को थोडा सा बुरा लगा उसने पूछा  ---- स्वाति आज कुछ नहीं खिलाओगी क्या ??? स्वाति एक फीकी से हंसी हंस दी।
स्वाति इतना परेशान होने की जरूरत नहीं है तुम चाहो तो मैं तुम्हें अंग्रेजी और गणित पढा दिया करूंगा अभी मैं यहां दस दिनों तक हूं । सागर ने कहा
सागर पढा लिखा तो था  ---- पर स्वयं सागर को बहुत बाद में पता चला कि वह कितना पढा लिखा था ।
स्वाति के चेहरे पर चमक आ गई “ सच आप मुझे पढा देंगें तब तो जरूर मैं अच्छे नंबरों से पास हो जाऊंगी”। मास्टरजी को भी थोडा सकून मिला।
उन्हीं दिनों सागर और स्वाति रूबरू हुए। रोज शाम को स्वाति सागर से पढ लिया करती । जिसके बदले में वह कभी कचौडी तो कभी गुलाब जामुन तो कभी  समोसे या फिर कोई और व्यंजन बना कर सागर को खुश कर देती।
यूं तो कोई विशेष लगाव जुडाव सागर को नहीं था बस औपचारिकतावश पढा दिया करता । दस दिनों बाद सागर को जाना था } स्वाति से मिल कर उसे इम्तिहान के लिए शुभकामनाएं देकर सागर चला गया।
स्वाति के इम्तिहान समाप्त हो गए । आगे की पढाई की कोई गुंजाइश नहीं थी इस कारण घर पर ही रहती । बस कुछ समय के  लिए सागर के घर जाती वरना अधिकतर समय घर पर ही गुजार देती ।
सागर का बडे दिनों बाद घर आना हुआ । आने पर ज्ञात हुआ कि स्वाति आगे नहीं पढ रही है और सारा समय यूंही निकाल देती है । वैसे भी वह समय को व्यर्थ करना एक बडा गुनाह मानता। इसी कारण वश वह शाम को मास्टरजी से मिलने गया । जब उसने इस विषय पर चर्चा छेडी, तभी उसे पता चला कि मास्टरजी वास्तव में क्या सोचते हैं । मास्टरजी ने कहा –
 “ अब क्या पढाना अधिक पढा दूंगा तो शादी ब्याह में अडचनें आएंगी । अधिक पढा लिखा दूल्हा ढूंढना पडेगा और फिर दहेज भी अधिक देना पडेगा अब मेरी इतनी हैसियत भी नहीं है”।
ऐसा नहीं है मास्टरजी अब जमाना बदल रहा है आजकल कई नौजवान पढी-लिखी लडकी चाहते हैं और दहेज का भी विरोध करते हैं । और स्वाति भी तो घर में छोटी कक्षाओं की ट्यूशन करके समय का सदुपयोग करते हुए अपनी पढाई जारी रख सकती है । वैसे वह घर पर रह कर दूर विद्या से भी आगे पढ सकती है । उसकी पढाई भी हो जाएगी और वह आत्म निर्भर भी । आत्म निर्भरता, आत्म विश्वास को बढाता है । आप उसे पढने दीजिए। सब ठीक हो जाएगा आप परेशान न होंवें।
सागर की कोशिशों से मास्टरजी  स्वाति को आगे पढाने के लिए मान गए। और यहीं एक नए अध्याय की शुरूआत भी हुई ।
सागर की दिलचस्पी ने मास्टरजी के मन में एक अनजानी चाह जगा दी। स्वाति के मन में कई दिनों से ऐसे भाव उमड-घुमड रहे थे। परन्तु सागर की तटस्थता को देखकर उसे कुछ कहने में भय –सा लगता ।
यूं भी सागर दो टूक बात कहने का आदि था और दूसरों से भी यही अपेक्षा रखता ताकि कई बातें की जा सके परन्तु स्वाति को कुछ भी कहना इतना आसान नहीं होता वैसे भी लडकियां थोडी संकोची स्वभाव की होती है जिससे उन्हें सीधे मुद्दे की बात कहना कठिन लगता है ।
     इस रिश्ते में कोई दिक्कत तो थी नहीं क्योंकि सागर की मां को भी सुंदर सुशील स्वाति पसंद ही थी । और अब सागर की दिलचस्पी ने बात को थोडा और आगे बढा दिया था।  दो –चार दिन रहकर सागर चला गया। जाने से पहले वह स्वाति से मिलने आया । वह ऊंगली पर दुपट्टा लपेटती, पैर के अंगूठे से जमीन कुरेदती, नज़र झुका कर चुपचाप खडी रही । कुछ नहीं बोल पाई और सागर चला गया स्वाति खडी उसे देखती रही कि वह पीछे मुड कर देखेगा पर नहीं सागर चला गया ।
 स्वाति की पढाई शुरू हो गई । अनेकों बार सागर घर लौटा और स्वाति से भी मिला । स्वाति और सागर के बीच दूरियां कम होने लगी थी । स्वाति के पैर जमीन पर ही नहीं पडते थे ।
फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि सब उलट गया स्वाति का विवाह किसी और से कैसे हो गया । सागर को इस बात का पता तब चला कि जब सगाई को केवल चार दिन शेष रह गए थे अब पिताजी से कैसे बात करूंगा यह सोच कर उसने मां से बात की और जो कुछ भी मां ने बताया, सुनकर उसकी सारी खुशियां खत्म हो गई । बात कुछ यूं हुई कि
 जब  मास्टरजी ने सागर के घर बात चलाई तब कोई दिक्कत नहीं थी सब ठीक ही लग रहा था । परन्तु अचानक से सागर के पिता को यह रिश्ता ठीक नहीं लगने लगा । उन्हें दहेज कम मिलने की उम्मीद तो थी ही फिर भी उन्होंने सागर की इच्छा के आगे इस रिश्ते को स्वीकारा तो था पर अब उन्हें कुंडली में दोष दिखने लगा था ।
उनका कुंडली पर इतना विश्वास था कि वे हर बार सागर के जाने से पहले समय, दिन, तारीख और नक्षत्र सभी देख कर ही सागर को जाने देते । स्वाति की कुंडली को उन्होंने कईयों को दिखया । जितने मुंह उतनी बातें कोई कहता सब ठीक है, तो कोई कहता यह शादी होगी तो दोंनो को एक साथ कई तकलीफ़े सहनी पडेगी, तो कोई कहता कि संतानोत्पत्ति में बाधा आएगी विकलांग संतान हो सकती है, तो कोई कहता लडकी का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहेगा। इस तरह पिता की रूढिवादिता और अंधविश्वास ने इस रिश्ते को अधर में लटकाए रखा।
 सागर की मां ने बहुतेरा समझाया कुंडलियां जिन्दगी का निर्णय नहीं लेती वे तो बस एक मार्ग दिखाती हैं । खुशी और दुःख तो हमारे स्वभाव में निहित हैं हमारे अपने मन के कारण हैं । बच्चे खुश रहेंगे दोंनो एक दूसरे को पसंद करते हैं अपने आप को , एक दूसरे को समझ कर संभाल  लेंगे। एक कागज़ के टुकडे को दोंनो की जिन्दगी का निर्णय लेने का अधिकार न दें । लडकी अच्छी है सागर को भी पसंद है घर में घुल-मिल कर रहेगी ---- पर नहीं एक कागज़ के टुकडे ने ही उनकी जिन्दगी का निर्णय लिया और पिता ने रिश्ता लौटा दिया
      सागर ने कुछ नहीं कहा यही आश्चर्य की बात रही । शायद कहीं अनजाने में वह भी इन सब बातों पर यकीन करता था या पिता को नाराज़ नहीं करना चाहता था या पिता से डरता था। पता नहीं पर वह चुप्पी साध गया।
मास्टरजी थोडे नाराज़ थोडे क्रोधित पर मजबूर से हो रहे और उन्होंने स्वाति की शादी कहीं और तय कर दी। उसे अच्छा घर-परिवार और वर मिला वह खुश रहेगी इसका सागर को विश्वास हुआ ।
जिन्दगी अपने हिसाब से चलने लगी थी । सागर का अब कस्बे में आने का मन नहीं करता। बार-बार वह पिता को दोषी मानता । अपने नसीब को खोटा समझता। यूं ही दिन बीतने लगे थे। स्वाति से वह दुबारा नहीं मिल सका । परन्तु करीब १० साल बाद वह जब घर आया, तब तीज के अवसर पर स्वाति भी घर आई हुई थी । साथ में उसकी खूबसूरत बेटी भी थी । सागर को मां ने खबर दी ।
सागर का मन एक बार फिर से स्वाति से मिलने का हुआ पर मन में चोर भी छुपा था परन्तु उसे यही ख्याल आया कि स्वाति उसकी मजबूरी समझ पाएगी और उसे माफ़ कर देगी। एक बार तो स्वाति से मिलकर उसे स्थिति से अवगत कराना ही चाहिए यही सोच कर वह स्वाति से मिलने गया।
 सागर को देख स्वाति धीमे से हंस दी । सागर को लगा जैसे उसकी हंसी व्यंग्यात्मक हो । सागर ने देखा भारी साडी और भरी मांग में स्वाति बहुत खुश और खूबसूरत लग रही थी। सागर ने पूछा कैसी हो?
बहुत खुश मेघ जी बहुत अच्छे इंसान है समझदार समय की नाजुकता को समझने वाले संवेदन शील इंसान है मन को समझते हैं और स्वभाव से नरम हैं मैं वास्तव में बहुत खुशनसीब हूं  
खुशी हुई जान कर कि तुम खुश हो । मैं ही बदनसीब हूं पिताजी ने मेरा जीवन ही बरबाद कर दिया । सिर्फ़ चार दिन थे तब मुझे समाचार मिला समय ही नहीं दिया ----
नहीं सागर -----बीच में ही स्वाति बोल पडी---- आप गलत कह रहें हैं दूसरों पर दोषारोपण करके आप स्वयं को सही साबित करने की गलत कोशिश कर रहें हैं । आप तो पढे लिखें हैं न ---
स्वाति का यह वाक्य सागर को तीर की तरह चुभा।
खूब दुनिया भी देखी है फिर कैसे पिता की बातों को मान बैठें। क्या आप को नहीं पता था कि मैं आप का ही इंतजार कर रही हूं । होने को तो क्षणों में भी बहुत कुछ हो सकता है आप के पास तो चार दिन थे । आप अपनी बात कह सकते थे, पिता को समझा सकते थे, समय की चाल दिखा सकते थे पर आप हमेशा की तरह तटस्थ रहे । आप भी एक कागज़ के टुकडे पर इतना विश्वास कर बैठें कि हमारे प्यार की, सामंजस्य की सारी बातें आप को बेमानी लगने लगी । आप तो मेरा स्वभाव जानते थे, मेरे चाल-चलन से वाकिफ़ थे रहन –सहन से परिचित थे फिर भी आप ने एक कागज़ के टुकडे के द्वारा लिए गए निर्णय  को ही अहमियत दी । आप ने ऐसी भूल कैसे की??? खैर अब तो आप खुश है न ???? इस बार वास्तव में स्वाति ने व्यंग्य ही किया । स्वाति की इस बात को सुनकर सागर फिर अतीत में लौट गया।
स्वाति की शादी के एक –दो साल बाद सागर की भी शादी हो गई । पिता ने बहुत देखभाल कर कुंडली का मिलान कर बहू पसंद की । दहेज भी अच्छा-खासा मिला और बहू भी सुंदर । सागर भी बहुत खुश था । परन्तु कहते हैं न कि दूर के ढोल सुहावने होते हैं । बहू के तौर –तरीके सागर के घर में नहीं जमें । बहू को कोई भी बात अच्छी ही नहीं लगती थी। सागर खाने-पीने का शौकीन तो वह परहेज पर विश्वास करती ताकि शारीरिक सुदंरता बनी रहे। रीति-रिवाज को ढकोसला कहती । सुबह देर तक मुंह ढांपे सोती रहती और काम –काज से जी चुराती घूमने-फिरने को तैयार मिलती । कहा जाए तो बडे घर की बडे नखरे वाली । सागर की जिन्दगी नर्क बन गई । मां –पिता के साथ रहना उसे गवारा नहीं था और सागर अलग रहने को तैयार नहीं था । दिन पर दिन कलह बढता ही गया । साथ ही सागर का पिता पर क्रोध बढता गया मां से भी नाराज़ रहने लगा । अपने आप को हालात और परिस्थितियों का मारा समझ टूटने लगा ।
मां ------ स्वाति की बेटी की आवाज़ सुनकर सागर चौंका । वह स्वाति को बुलाने आई थी । स्वाति ने सागर से जाने की इजाज़त मांगी सागर ने मौन सहमति दे दी। अब उस के पास कहने सुनने के लिए कुछ भी शेष नहीं बचा था। वह भी चुपचाप थके कदमों से बाहर निकल पडा । उसके कानों में स्वाति के अंतिम बोल गूं ज रहे थे।
विद्या विनयं ददाति । विद्या हमें विवेक शील विनय शील और समय के साथ चलना सिखाती है । समय के साथ बदलना और जीना सिखाती है पर आप कूपमंडूक ही बने रहे तो इसमें किसी और का क्या दोष । आप किसी और को दोष देकर अपने आप को सही साबित करने की भूल न ही करें तो अच्छा है ।
सच ही कहा स्वाति ने उसने केवल हालात और पिता को ही दोषी माना उसने तो कोई भी प्रयत्न ही नहीं किया । सागर में गहरे तल में ही स्वाति मोती छिपी होती है गहरे डुबकी लगाने वालों को ही वह मिलती है। समय के साथ कदम बढाते हुए परिवर्तनों को सही अर्थों में स्वीकारना अपनी खुशियों को पाने का सही मार्ग है।
सागर को इसका ज्ञान हुआ, पर अब बहुत देर हो चुकी थी।






Friday, May 25, 2018


                  नमस्कार साथियों ...  हर दिन हम अपने कई भावों को  विचारों  को लिखते हैं पढते हैं आज इसी रचना की प्रेरणा पर ही कुछ लिखने की कोशिश की है। आशा करती हूँ कि आप सभी को अच्छा लगेगा।       
रचना की प्रेरणा
मानव कि नैसर्गिक प्रवृत्तियों में भावात्मक स्तर पर कहने और सुनने कि प्रवृत्ति प्रबल होती है। यह जन्मजात प्रवृत्ति अपने को प्रकट करने के लिए उत्सुक रह्ती है। समाज, समय, संदर्भ और स्थिति के अनुसार यह प्रवृत्ति अपना आकार-प्रकार और रूप धारण करती है। मानव अपनी भावनाओं और वेदनाओं को अपने परिवार तथा समाज के उन व्यक्तियों के सामने प्रकट करता है, जिनसे वह निकट संपर्क में आता है। रचनाकार भी एक सामन्य आदमी की भाँति सामाजिक प्राणी होने के नाते इन सभी स्थितियों से गुजरता है। वह जो कुछ भी देखता है, सुनता है, भोगता है, उसे अपने ढंग से उसे अपने एकांतिक क्षणों में अभिव्यक्त करता है।
अपने किसी अनुभव को लेकर अथवा किसी घटना से प्रेरित होकर जब रचना का सृजन होता है, तब वह एक प्रकार से वास्तविकता को गल्प में बदलना होता है। यथार्थ को रचना का रूप देना होता है। यह रचनाकार की अपनी निजी ज़िंदगी की बात है, उसके आंतरिक संघर्ष की बात है, जिसमें वह रचना लिखने की प्रक्रिया से जूझ रहा होता है। आत्मसंघर्ष के द्वारा रचना एकांत के क्षणों की सहचरी बन जाती है ।
मानव-हृदय में गहरी वेदना के साथ कुछ सपने भी होते हैं। सपनों में ऐंद्रिय सुख की मांसलता है, तो यथार्थ में वेदना की आंतरिक टीस और जल्द- से- जल्द सब-कुछ ठीक हो जाने की चाह। यह आत्म संघर्ष रचना को आत्मीयता प्रदान करता है, जिसे रचनाकार कागज पर उकेरता है ।  
रचना की मूल प्रेरणा जीवन से ही मिलती है। रचना की तह में कहीं- न-कहीं, कोई-न-कोई जाना-पहचाना पात्र अथवा कोई वास्तविक घटना होती है। मूलतः रचना कल्पना की उडान नहीं होती। रचना केवल आत्माभिव्यक्ति में लिखी जाती है, ऐसा नहीं है। यह जीवन का कोई सत्य उद्घाटित करती है। यह सामाजिक यथार्थ का और उसके परिणाम से विकसित मनोभावों अंतर्विरोध या अंतर्द्वंद्व प्रस्तुत करती है। सचेत रूप से किसी लक्ष्य को लेकर, उसे न लिखा गया हो, पर रचना जीवन की भी उपज होती है।
संवेदना और  अनुभूति कविता की महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ हैं। रचनाकार अपने-आप को परिवेश के संदर्भ में जानने-समझने, परखने तथा पाने की कोशिश में कुछ संवेदनाओं को, भावों को अपने अंदर उमड्ते-घुमडते पाता है,  उनको द्वंद्व  करते देखता है, उन्हीं भावों को कागज पर उकेर देने से रचना का जन्म होता है । अनेक परस्पर विरोधी वृत्तियों के बीच मनुष्य अपनी ज़िंदगी को बेहतर बनाना चाहता है,  रचना अनेक भावों को उतारने का प्रयास है।

Thursday, May 10, 2018


साथ चलो

मुश्किल सफर  ज़िंदगी का आसन हो जाए
गर तुम थोडी दूर साथ चलो

मोहब्बत की कशिश में चूर हम तुम
जमाने से छुप कर कुछ दूर तो साथ चलो

नसीब में है कुछ लम्हों की मुलाकात
कल कौन कहां अ‍भी तो कुछ दूर साथ चलो

जन्मों का साथ है एक छलावा
जानती हूं पर कुछ दूर तो साथ चलो

ज्योति से जगमग हैं अ‍भी सभी राहें
अ‍भी दूर है स्वरर्णोदय कुछ दूर तो साथ चलो

जन्मों को पार हमें भी करना है
इस जन्म में कुछ दूर तो साथ चलो


Thursday, May 03, 2018

काग़ज़ और कलम

एक दिन जब मैंनें 
कुछ शब्द लिखें 
तत्क्षण काग़ज़ पर 
कुछ आँसू देखे

हर्फ़ सब हुए थे तर 
रंग हुआ था बदतर


कह रहा था काग़ज़ 
कलम से अपना नसीब   
हादसा था अज़ीब 
तुम मुझ पर क्यों हो फिरती
रंगरूप मेरा बिगाड हो देती
मुझे काले-नीले रंगों से
क्यिं हो भर दे
किसी के अस्तित्व को निखार
मुझे कलंकित हो कर देती

मैं नहीं मानती
तुम्हारा तर्क
तुम्हारी क्या कीमत 
बिना हर्फ़
रहोगे कोरे तो
पडे रहोगे कोने में 
मैंनें ही पहुँचाया है 
तुमको कोने-कोने में 

छोडो यूँ न करो तकरार
बढाओ न बात को बेकार
एक शाश्वत सत्य यह जान लो
तुम दोनों हो समान मान लो

Tuesday, May 01, 2018

अब कोई अभिमन्यु नहीं होगा कि

माँ अब माँ बन कर भी बाँझ हो गई है

जन्म से पहले जीव का भेद जान

कोख भी लाचार हो गई है


अब कोई घटोत्कच नहीं होगा

पितृ प्रेम से वंचित

माँ से ही पोषित

देकर प्राणों की आहुति

जो हो वंश के लिए समर्पित


अब कोई युयुत्सु भी नहीं होगा

निर्भय निडर सत्य का लेकर पक्ष

भरी सभा में रखे अपना मत


अब तो बस सब होंगें

दुर्योधन और दुश्शासन

कपट कुलषित शासन

चीर हरण देंखें चुपचाप

ऐसा प्रशासन


होंगें आँखों के साथ

धृतराष्ट्र ही पैदा

क्योंकि इतिहास दुहराता है

स्वयं को सदा


इसीलिए अब माँ भी

बाँझ हो गई है


                   विश्व का एकमात्र अंक काव्य
                         सिरि भूवलय
                         
विचारों के आदान- प्रदान का सशक्त माध्यम है भाषा।  मानव का मानव से संपर्क माध्यम है भाषा। किंतु भाषा क्या है? इसकी उत्पत्ति कैसे हुई?
मानव ध्वनि संकेतों के सहारे अपने भावों और विचारों की अभिव्यक्ति करने के लिए जिस माध्यम को अपनाता है उसे भाषा की संज्ञा दी जाती है
भाषा शब्द संस्कृत के भाष् धातु से निषपन्न हुआ है जिसका अर्थ है व्यक्त वाणी।
भाषा के उत्पत्ति के संदर्भ में कई सिध्दांत प्रचलित है। भाषा की उत्पत्ति इतने प्राचीन काल में हुई कि उस पर विचार करने के लिए हमारे पास आज कोई आधार नहीं है। इस प्रश्न का संतोषजनक और सर्व सामान्य उत्तर ढूंढना कठिन है।
   प्राचीन काल में मानव के लिए अंगिकाभिनय ही भावाभिव्यक्ति का साधन था। इस व्यवस्था ने आगे चलकर चित्राभिव्यक्ति का रूप धारण कर लिया ।  आदि मानव ने चट्टानों, पत्थरों और दीवारों पर अपने भावों को चित्रों के रूप में किया, इसे मानव शास्त्र्ज्ञ चित्र लिपियुग कहते हैं । मानव के द्वारा बोली के अविष्कार करने के कई वर्षों के पश्चात लिपि का अविष्कार हुआ। लिपि के साथ संख्या भी अवतरित हुई। मानव जब अपने भावों अनुभावों और अनुभवों को अक्षर रूप में उतारने लगा तब साहित्य का निर्माण हुआ। इसे अक्षर लिपि  काव्य कहा गया । इसी प्रकार स्पंदित होकर  भावों – अनुभावों को भाषा की तरह ही समर्थ रूप से प्रकट करने के लिए संख्या रूपी संकेतो का जन्म हुआ। इस प्रकार रचित काव्य को संख्या लिपि काव्य कह सकते हैं। इस रीति से उपलब्ध संख्या लिपि एकैक आश्चर्य जनक काव्य कुमुदेंदु विरचित सिरिभूवलय  अंक काव्य होने पर भी इसमें 718 भाषाएँ समाहित हैं। ऐसा कवि का कथन है।
     आज से अर्ध शताब्दी पूर्व इस अंक काव्य  को संग्रहित व संपादन करने के लिए तीन महानुभव पंडित यलप्पा शास्त्री , कर्ल मंगलं श्री कंठैय्या और के.  अनंत सुब्बाराव जी ने अथक प्रयास किया। वर्ष 2003 में यह अंक काव्य ग्रंथ कन्नड अक्षरों के साथ प्रकाशित हुआ। यह इस ग्रंथ का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि यह ग्रंथ लंबे समय तक अपरिचित रहा । वर्ष 2003 में इस ग्रंथ के प्रकाशन के पश्चात इस महान ग्रंथ का हिंदी में अनुवाद करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ। अनुवाद करते समय मुझे यह ज्ञात हुआ कि इस अंक ग्रंथ में 64 अंकों को अक्षरों में परिवर्तित कर ग्रंथ को पढने का प्रयास किया गया है । इस अंक ग्रंथ में 64 वर्णमाला है जो ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत आदि ध्वनियों  में विभक्त हुए हैं ।
·        भाषा विज्ञानी भी ध्वनि विज्ञान को अपनी एक शाखा के रूप में स्वीकार करते हैं। ध्वनियाँ शब्द और अक्षर को खंडित करने से प्राप्त होती है ।       
     हिन्दी वर्माला में 44 वर्ण माने गए हैं । परंतु जब हम बात करते हैं तब अनेक उच्चारण ध्वनियाँ होती हैं। उन ध्वनियों को हम लिख नहीं सकते। इन्हीं उच्चारण ध्वनियों को सिरि भूवलय में स्पष्ट किया गया है।
     सिरि भूवलय के अनुसार 27 स्वर, 33 व्यंजन और 4 आयोगवाह हैं। कुल मिला कर 64 ध्वनियाँ या स्वनिम हैं । 
इस ग्रंथ की रचना सातवीं शताब्दी के लगभग हुई थी और भाषा विज्ञान  का प्रादुर्भाव आधुनिक काल में हुआ है । वास्तव  में देखा जाए तो भाषा विज्ञान का प्रारंभ भारत में हुआ,  ऐसा कहना अतिश्योक्ति नहीं  होगी। किंतु आधुनिक काल में अपने देश में इसके प्रति रूचि बहुत बाद में जगी और वह भी यूरोपीय व प्रेरणा के फलस्वरूप। लगभग तीन-चार दशकों से  यह विषय काफी लोकप्रिय हुआ है और होता जा रहा है ।
इस दृष्टि से भाषा विज्ञान और सिरि भूवलय का विश्लेषण एक नई सोच और दिशा प्रदान करने में सहायक है।  यह संपूर्ण ग्रंथ ध्वनियों पर आधारित अक्षरों पर आधारित है। अंक काव्य होने के बावजूद अंकों  को अक्षरों में परिवर्तित करने के पश्चात ही ग्रंथ को पढा  जा सकता है और ध्वनियों के आधार पर ही अक्षरों में परिवर्तित किया गया है।
इस विलक्षण ग्रंथ में मूल विज्ञान विषय, दर्शन का तात्विक विचार, वैद्य  अणु विज्ञान, खगोल विज्ञान, गणित शास्त्र, इतिहास और संस्कृति विवरण, वेद, भगवद गीता के अवतरण सभी समाहित हैं । 
सिरि भूवलय – एक संक्षिप्त परिचय- श्री कुमुदेंदु विरचित सिरि भूवलय 56 अध्यायों का एक जैन ग्रंथ है। परंतु यह परिचित रीति ग्रंथ नहीं है। अर्थात किसी एक भाषा के वर्णमाला के वर्णों का प्रयोग कर तैयार किए गए शब्दों में लिपि बध्द रूप का गद्य-पद्य- निबंध ग्रंथ नहीं है। गणित में प्रयोग किए जाने वाले संख्याओं का प्रयोग कर तैयार किया गया ग्रंथ है । अंकों को अक्षरों के स्थान पर उनके प्रतिनिधि तथा प्रतिरूप के रूप में उपयोग करना ही इसका वैशिष्टय और वैलक्षण है। संस्कृत-प्राकृत और कन्नड भाषा के लिए समान रूप से संबंधित संप्रदाय रूप प्राप्त 64 मूल वर्णों को 1 से लेकर 64 तक के अंक प्रतिनिधित्व करते हैं । प्रत्येक अक्षरों के लिए उपयुक्त अंकों को चौकोर खानों में (27 * 27 = 729) भरे गए अंक राशी चक्र ही इस ग्रंथ के पृष्ठ हैं । कवि इसे अंक काव्य कहकर संबोधित करते हैं। अंक काव्य होने पर भी इसमें 718 भाषाएं निहित हैं। ऐसा कवि का कहना है । कुमुदेंदु की स्व हस्ताक्षर प्रति उपलब्ध नहीं है।
ध्वनि विज्ञान और सिरि भूवलय की ध्वनियाँ- भाषा विज्ञान की एक शाखा    ध्वनि विज्ञान है। जिसमें ध्वनि का अध्ययन किया जाता है। वाक्य को खंडित करने पद मिलते हैं तथा पद को खंडित करने पर शब्द और संबंध तत्व मिलते हैं। संबंध तत्व और शब्द को खंडित करने पर ध्वनियाँ मिलती हैं । इन्हीं ध्वनियों का अध्ययन ध्वनि विज्ञान में किया जाता है। वक्ता ध्वनियाँ उच्चारित  करता है फिर वे  वायु  के द्वारा लाईं जाती हैं और फिर श्रोता उन्हें सुनता है । इन्हीं तीन आधारों पर ध्वनि विज्ञान का वर्गीकरण किया जाता है
सिरि भूवलय में भी अंकों को ध्वनियों के आधार पर अक्षरों का रूप दिया गया है । भाषा विज्ञान के साथ सिरि भूवलय का यही गूढ संबंध है । 
·        सिरि भूवलय में भाषा में ध्वनि का स्थान स्पष्ट होता है।
आज वर्णमाला में 44 वर्णों का प्रयोग होता है । परंतु इस निर्धारण के पूर्व इस विषय पर मतभेद था । हम केवल ह्रस्व एवं दीर्घ स्वरों का प्रयोग करते हैं और उन्हीं को लिखते हैं परंतु सिरि भूवलय यह स्पष्ट रूप से कहता है कि उच्चारण के समय हम केवल ह्रस्व या दीर्घ स्वरों का नहीं वरन प्लुत ( दीर्घ से भी बडा) स्वरों का भी प्रयोग करते हैं । इन ध्वनियों के आधार पर यदि वर्णमाला तैयार की जाए तो 64 अक्षर बन सकते हैं
आदि तीर्थंकर होने वाले पुरदेव तीसरे परिनिष्क्रमण कल्याण के बाद वैराग्य परावश होकर समस्त साम्राज्य को अपने पुत्रों में बाँट देते हैं । उस समय आदि देव की दो पुत्रियाँ कुछ शाश्वत संपत्ति देने का आग्रह पिता से करती हैं । तब आदि नाथ वॄषभ स्वामी ज्येषठ पुत्री ब्राह्मी को अपने  बाँयी तथा छोटी पुत्री सौन्दरी को अपने दाँयीं गोदी में बिठा कर ब्राह्मी के बाँयें हाथ पर अपने दाँएँ हाथ के अँगूठे से ॐ लिखते हैं । उसमें ६४ अक्षरों के वर्णमाला का सृजन कर " यह तुम्हारे नाम में अक्षर हो" और "समस्त भाषाओं के लिए इतने ही अक्षर पर्याप्त हो" कह कर आशीर्वाद देते हैं । ब्राह्मी से अक्षर लिपि को ब्राह्मी लिपि का नाम पडा । उनके द्वारा ब्राह्मी को " साहित्य शारदे" नाम की शाश्वत संपत्ति प्राप्त हुई ।
     वृषभस्वामी अपनी दाँयी गोदी पर बैठी सौन्दरी के दाहिने हथेली पर अपने बाँएँ हाथ के अँगूठे से उसकी हथेली के मध्य भाग पर शून्य लिख कर इस शून्य को मध्य भाग में काटे तो ऊपर का भाग (टोपी के आकार का) और नीचे के भाग को अर्थ पूर्ण ढंग से मिलाते जाए तो ९ अंकों की सृष्टि होगी । इस तरह शून्य से ही विश्व की और गणित में अंकों की सृष्टि को दिखा कर सौन्दरी को गणित अथवा संख्या शास्त्र विशारदे नाम की शाश्वत संपत्ती प्रदान करते हैं ।
 इस प्रकार सौन्दरी के अंक ही  अक्षरों के और ब्राह्मी के अक्षर ही अंकों के बराबर होंगें ऐसा स्पष्ट कर दोनों पुत्रियों को दी गई शाश्वत संपत्ति  एक ही वज़न की है, कह अंकाक्षर लिपि में भी काव्य रचना की साध्यता का विवरण करते हैं । (उपर के चित्र में जो संख्याएँ बनाई गईं  हैं वे कन्नड  की संख्याओं से मिलती- जुलती हैं ।) इसी को आधार बनाकर मुनि कुमदेंदु ने अपने सिरि भूवलय काव्य की रचना की जिसमें वे 64 ध्वनियों का संकेत देते हैं जिसमें
    ह्रस्व, दीर्घ और प्लुतों से मिलकर २७ स्वर,
,,,, जैसे २५ वर्गीय वर्ण 
,,,, अवर्गीय व्यंजन
बिन्दु अथवा अनुस्वार (०)
विसर्ग अथवा विसर्जनीय (:)
जिह्वा मूलीय () (यह तमिल में  प्रयोग होता है जो हिन्दी के बिन्दु का प्रतीक है)
उपध्मानीय (::) नाम के चार योगवाह

    सभी मिलाकर ६४ मूलाक्षरों को १ से लेकर ६४ संख्याओं का संकेत देते हैं । यह क्रम रूप से २७ गुणा २७ = ७२९ बनते हैं । कवि के निर्देशानुसार ऊपर से नीचे , नीचे से ऊपर अंकों की राह पकड कर चले तो भाषा की छंदोबध्द काव्य अथवा एक धर्म, दर्शन, कला, विज्ञान बोधक शास्त्र कृति लगती है । यह संपूर्ण ग्रंथ ध्वनियों पर आधारित अक्षरों पर आधारित है । अंकों को अक्षरों में परिवर्तित करने के पश्चात ही पढा जा सकता है।
      718 भाषाओं को कन्न्ड काव्य में संयोजित करने के लिए कुछ बंधों का   प्रयोग किया गया है। श्रेणी बंध में आए हुए कन्नड काव्य के पहले अक्षरों को ऊपर से नीचे पढते जाए तो वह प्रकृत काव्य होगा । बीच के 27वें अक्षर से नीचे पढें तो वह संस्कृत काव्य बनेगा । इस रीति से बंधों को अलग-अलग रीतियों से देखा जाए तो विविध बंधों में बहु विधि की भाषाएँ आएँगी ऐसा कवि कहते हैं ।
कवि बंधों के नाम इस प्रकार कहते हैं – चक्र बंध, हँस बंध, पद्म बंध, शद्ध बंध , नवमांक बंध, वरपद्म बंध,  महापद्म, द्वीप,सागर, पल्या, अनुबंध, सरस, शलाका, श्रेणी, अंक, लोक, रोम, कूप, क्रौंच, मयूर, सीमातीत, कामन, पदपद्म, नख, सीमातीत लेख्य बंध, इत्यादि बंधों में काव्यों की रचना की है।
विशेष- * 718 भाषाओं और 363 मतों के अंवय और विचार सिरि भूवलय में दिखाई पडते हैं , कहना ही ग्रंथ की आधुनिकता को दर्शाती है। 
·        संस्कृत, प्राकृत और द्रविड भाषा लिपि के साथ आधुनिक आर्य भाषा जैसे मराठी, गुजराती, बंगाली, उडिया, बिहारी भाषाओं के साथ साहित्य संवर्धनों में तमिल, तेलगु, मलायालम भाषाओं को और यवन, फारसी, खरोष्ठि, तुर्की देशों की भाषाओं का भी यहाँ उल्लेख मिलता है।
·         वीरशैव के उत्त्कर्ष काल तथा मधवाचार्य के काल (1238-1317) अनंतर  प्रवर्तित अद्वैत- द्वैत सिध्दांत भेद भी यहाँ प्रस्तावित 
·         कुमुदेंदु अपने कृति में अनेक जैन क्षेत्रों का उल्लेख करते हैं ।
कुमुदेंदु द्वारा रचित सिरि भूवलय एक मध्य कन्नड भाषा की रचना है । सांगत्य , अनिर्दिष्ट छंद बंध पद्म पंक्तियाँ उस भाषा के वैलक्षणों को लेकर ही रचित है । हाडलु सुलभवादंग नोडलु मेच्चुव गणित (गीत की भाँति सरल और दृष्टि भावन गणित) कहना ही ग्रंथ स्वरूप है।
इस ग्रंथ के सामन्य भाषिक लक्षणों को संग्रहित कर सकते हैं –
·        व्यंजनांत शब्द स्वरांत बने हैं
·        छ- ळ –र ध्वनियों के बीच अंतर न करते हुए उन्हें प्रास स्थान में और अन्यत्र भी प्रयोग किया गया है ।
·        "प" कार घटित शब्द "ह" कार रूप में है।
·        अपूर्व प्राचीन कन्नड समय के शब्द प्रौढ संस्कृत शब्द और उनके समासों का प्रयोग नहीं हुआ है ।
·        अन्य देश, नवीन कन्नड काल के शब्द आज के व्यव्हार भाषा के चलन में रहने वाले शब्द रूप भी यहाँ-वहाँ दिखई पडते हैं ।
·        प्रासाक्षरों के प्रयोग में शिथिलता है ।
·        वाक्य रचना में सरलता और सौलभ्यता से दिखाई पडते हैं । रचना की अडचन और प्रौढता उतनी दिखाई नहीं पडती है ।
·        छ कार और ळ कार के लिए क्रम से "रळ"  "कुळ"  जैसे 13 वीं सदी के बाद के संकेत नामों का प्रयोगा किया गया है ।
भाषाओं के लिए कुमुदेंदु ने भाषा और लिपि दोनों बनी हुई स्व भाषा कन्नड को आधार भाषा के रूप में चुना है । यहाँ धवल टीकाओं के सिद्धांत शास्त्र,  सार वस्तु विवरण के लिए लेकर, नवमांक पद्धति/ श्रेणीगति/ चक्र  बंध विधान में चमत्कारिक रूप से ग्रंथ रचना की गई है। यही भूवलय सिरि भूवलय नाम का 56 अध्यायों का सिद्धांत ग्रंथ है । इस ग्रंथ की भाषाओं को वस्तु विस्तार को निरूपित करने का आज तक जो भी प्रयत्न हुए हैं , इन्हें आगे बढाना  अद्ययन कर्त्ताओं के सामर्थ्य पर आधारित है ।  
  संस्कृत –प्राकृत और कन्नड भाषा के लिए समान रूप से संबंधित संप्रदाय रूप प्राप्त 64   मूल वर्णों को 1 से लेकर 64 तक के अंक प्रतिनिधित्व करते हैं। यह केवल एक ही कन्नड भाषा प्रतिनिधित्व अंकों में ही होने पर भी विश्व की अनेक भाषाओं, अनेक काव्य शास्त्रों , धर्म, राजनीति, मनोविज्ञान, ज्योतिष्य आदि को समाहित किए हुए है।  
    कुमुदेंदु की स्व हस्ताक्षर प्रति उपलब्ध नहीं है। सभी विषयों की जानकारी ग्रंथ में से निकालने के लिए आधुनिक शोध से तुलना करने के लिए सतत प्रयत्न करना अभी शेष है। विविध क्षेत्रों से गणितज्ञ और भाषा विद् हाथ मिलाएँ तो अनेक लुप्त होते जा रहे ग्रंथ और भाषाओं को पुनः पहचाना जा सकता है प्रकाश में लाया जा सकता है।  साथ ही उच्चारण ध्वनियों की सहायता से लिपि लिखने की रीति में परिवर्तन हो सकता है। जिससे अनुवाद की समस्या भी कुछ सीमा तक सुलझ सकती है।

                     शुभम्
स्वर्ण ज्योति
नं 30, 1 ला माला, 1ला क्रास,
बृंदावन, सारम पोस्ट
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