Tuesday, February 27, 2007

खूनी सागर

आज दिन भर रहा
उसका साया
मेरे साथ फिरता रहा
बनकर छाया

ज्यों ही पल-पल
दिन गहराया
त्यों-त्यों मेरा मन
घबराया कि
वक्त ने वही क्षण
है दुहराया

आज फिर खून हो गया
गगन पुनः लाल हो गया

मैं दौडा, भागा भी
चीख कर था उसे
रोका भी पर
अफ़सोस सारे प्रयत्न
हुए विफल
आज सागर ने फिर
सूरज को था निगल


मैं स्तब्ध सा था खडा
आँखें हुई थी सजल

Saturday, February 17, 2007

माँडू
मेरे सामने एक तस्वीर है
माँडू का जहाज महल
पुण्य-पवित्र नर्मदा के तट पर
माँग रहा न्याय समय के दर पर

बाज़ बहादुर के दीवानगी का
रूपमती के रूप लावण्य का
सबूत
आज बन गया
ताबूत
माँडू का जहाज महल

इतिहास के पन्नों पर शाश्वत
हमारी संस्कृति का विरासत
गुमनामी के अँधेरों से होकर आहत
गूँजें आवाज़, करे खँडहरों से सवालात

नर्मदा के कलकल में वह स्वर नहीं
रानी का मन मोह लेती थी जो कभी
सिसक रही थी उसकी कलकल
अपनी ज़र्ज़र अवस्था के देख पल

पाकर रूखा-सूखा स्पर्श
आज वह भी हो गए हैं चुप
बन गए होकर विवश
कैलेंडर की एक तस्वीर
देख इसे ही शायद कोई
समझे उनकी पीर

Thursday, February 15, 2007

शिवरात्री के उपल्क्ष्य पर

जोगी

जोगी है आया तेरे द्वारे
जटाजूट भस्म विभूत हैं धारे

प्रिय दरसन की आस है पर
भवति भिक्षांह देहि पुकारे

नील अंग है मृग छाला वसन
भूत पिशाच का देव करे भजन

वृषभ पर सवारी है करे
ताज बना शीश पर भागीरथी धरे

कांधे सर्प गले मुण्डन माला
शशि रख कर दिखता है आला

भक्ति प्रेम का है मतवाला
पी जाए विष भी समझ हाला

भ्रमित होकर तकते दृग नयन
गोरी का मन कहे यही मेरा सजन
राह के दऱख्त

काश.....
राह पर खडे दऱख्त
कुछ बोल पाते
अपनी ज़बानी अपनी गवाही
दे पाते तो
कितने किस्से कह पाते
काश......
ये कुछ बोल पाते

पंथी को छाया
राही को साया
भूलों को राहें
भटकों को बाँहें
देकर भी ये हैं
कितने.... अकेले

हरियाली के मेले
हैं कितने अलबेले
छाँव में अपनी
नन्हें नीडों को पाले
पर हैं अकेले
तन्हाई का दुःख झेलें

काश.....
ये कुछ बोल पाते
तो अपनी व्यथा-कथा
अपनी दर्द बाँट पाते
काश....
राह के दऱख्त
कुछ बोल पातें.........

Sunday, February 11, 2007

नासमझ

मौन ही ग़र तेरी भाषा होती तो
मैं सब कुछ समझ लेता पर
तेरी तो निराली अदा निकली जो
चुप रहकर भी बोल निकली

कुछ कही-अनकही बातों से
कुछ बुझी-अनबुझी निगाहों से
तेरी दास्तां का इल्म न मुझे हो सका
फिर कैसे कहूं सब समझ सका

थर्राते लबों को इकरार समझूँ
या बहते अश्कों को इनकार
झुकी पलकों को समझूँ हया
या समझूँ सुर्ख गालों को बला

तेरी ज़ुल्फ़ों के साए में
कैद होकर रह गया हूँ मैं
दिल मे मेरा गया है उलझ
कैसे समझाऊँ ओ नासमझ

Friday, February 09, 2007

कन्नड के प्रसिद्ध चलन चित्र नायक, परिवेशवादी, साहित्यकार श्री सुरेश हेब्बलिकर के द्वारा कृति विमोचन, साथ में कर्नाटक राज्य स्रकार में (सेवानिवॄत) मुख्य अरण्य अधिकारी तथा रचनाकार जो मेरे बडे बाबूजी भी हैं , श्री कृष्ण स्वामी जी , और मध्यप्रदेश में सिंचाई विभाग में मुख्य अभियंता (सेवानिवृत) मेरे बाबूजी श्री ए. नागराज राव और मैं
मैसूर हिन्दी प्रचार परिषद तथा अखिल कर्नाटक हिन्दी साहित्य अकादमी के द्वारा आयोजित पुस्तक "अच्छा लगता है" का लोकार्पण समारोह
नवीं अखिल भारतीय कन्नड सम्मेलन में मेरी कृति "अच्छा लगता है" का विमोचन श्री रामे गौडा द्वारा साथ में कन्नड की प्रसिद्ध लेखिका श्रीमती कमला हम्पना और उनके साथ प्रसिद्ध गायक श्री शिवमोगा सुब्बण्णा दूसरी ओर श्रीमान हम्पना और मैं स्वयं

Wednesday, February 07, 2007

आज की राजनीति पर एक व्यंग्य


नया कुरुक्षेत्र

खेल रहा है दाँव शकुनि -सा

साम-दाम-दंड-भेद अपना कर
भोग रहा है राज दुर्योधन-सा

सत्यमेव जयते हैं कुछ कहते
पर रखें ज़ुबां बंद विदुर-सा

हैं कई लक्ष्य निशाने पर
नहीं है तीरंदाज अर्जुन-सा

सौ करोड की सेना है पर
नहीं है सेनापति द्रोण-सा

है खडा तैयार प्रगति का रथ
नहीं है हाँकने को सारथी कृष्ण-सा

यही पूछे है जन-मन यक्ष प्रश्न
नहीं है उत्तर देने को धर्मपुत्र युधिष्ठर-सा

था वह युद्ध पाँडव और कौरव का
है यह युद्ध मानव से मानव का

बना था केवल अट्ठारह दिन का युद्ध्क्षेत्र

कैसी है ये राजनीति कैसा है ये राष्ट्र
कुछ बने हैं गांधारी कुछ हैं धॄतराष्ट्र

शतरंज बिछा कर हर कोई

आज तो बन गया है जीवन ही कुरुक्षेत्र

कैसी ये राजनीति कैसा ये राष्ट्र......?