Wednesday, July 17, 2019


यह कहानी नहीं है
                                               
बहुत पुरानी बात है, या एक राजा था एक रानी थी जैसे वाक्यों से कहानी का आरंभ होते तो पढा था पर "यह कहानी नहीं है" ऐसा वाक्य वह भी एक कहानी का शीर्षक बडा अज़ीब सा लगा। परंतु यही सच भी था क्योंकि जब कहानी लिखने बैठी तो सारे वाक्य गडमडा गए । कुछ अतीत की स्मृतियाँ ताजा हो गईं तो कुछ वर्तमान की परिश्तियाँ कहानी के बजाए कविता की पंक्तियाँ लिख बैठी
यादों का पुलिंदा खोल कर बैठा है मन
आज न जाने कहाँ कहाँ उडा जा रहा है मन
यूँही मन उडते-उडते बचपन की देहरी पर जा पहुँचा जहाँ गुडिया की शादी हो रही थी। शादी जैसे सार्थक शब्द का अर्थ तो उस नादान बालिका को नहीं पता था जो गुडिया की शादी रचा रही थी। उसके लिए तो नए कपडे, नए जूते, नए गहने और ढेर सारी मिठाईयाँ ही शादी का अर्थ था। क्या यथार्थ में शादी का यही अर्थ होता है? या सामाजिक और शारीरिक आवश्यकताओं के लिए किया गया एक समझौता या कुछ और भी ....





 " यह कहानियां नहीं है" मेरी ज़िंदगी के हिस्से हैं। जब इन हिस्सों पर  लिखने बैठी तो हठात् लेखनी की गति स्वयं ही अवरूद्ध हो गई। बहुत दिनों से इच्छा थी कि अपने इन हिस्सों को कहानियों  का स्वरूप देकर पुस्तक के रूप में ला सकूँ। ज़िंदगी की कितनी ही घटनाएँ अब तक अवश पडी थीं, कितनी ही स्मृतियाँ उन्मुक्त ठहाके लगा रही थीं, अनेक सिसकियाँ दबी पडी थीं। इन्हें स्मृतियों की टहनी से कुरेदा तो  यादें चटकनें लगी। उन यादों में से कुछ यादों के अंश जुगनुओं की तरह उड़ने और चमकने लगीं।
नारी के लिए लेखन उतना सुगम नहीं है जितना पुरूष के लिए है। नारी के अनुभव का क्षेत्र निश्चित रूप से  पुरूष के अनुभव के क्षेत्र से सीमित और संकुचित होता है। प्रत्येक लेखक का परिवेश और उसके अनुभव का दायरा अवश्य ही उसके लेखन को प्रभावित करता है। पुरूष और नारी के जीवन मूल्यों में निश्चित  ही बहुत बडा अंतर होता है। इसी कारण नारी के द्वारा लिखी गई रचना को पुरूष उस दृष्टि से नहीं देख पाता जिस दृष्टि से उसे लिखा गया है। पुरूष की दृष्टि में जो कोरी भावुकताएँ  होती है वे नारी की दृष्टि में अपने व्यक्तितत्व की अभिन्न अनुभूतियाँ होती हैं। और यदि वे भावुकताएँ हैं भी तो वे प्रामाणिक और सहज भावुकताएँ हैं।  


मेरी आने वाली पुस्तक से कुछ अंश 

·     






































                                        शतरंज की बाज़ी *
  
आसमां और धरती के बीच
शतरंज की बिसात बिछा कर
आ खेले दो –चार बाजी
तेरी शह या मेरी मात
जो भी हो मैं हूँ राज़ी 

सूरज को  ढक कर तूने
मुझको  भरमा दिया 
दीपक की चाल  चल कर
मैंने  खुद को बचा लिया 

समय की चाल चल कर
मुझको तूने बाँध  दिया
समय को लम्हों में बाँट
मैंने जीना सीख लिया

मौत की शह देकर
तूने मुझको घेर लिया
बदन को तेरे हवाले कर
मैंने रूह को बचा लिया

तेरी शह या मेरी मात
रह गई दोनों की बात





Saturday, January 26, 2019


                    खूबसूरत ज़िंदगी

  भुवन यूँ ही निराशा भरे मन से कदम बढाते हुए चला जा रहा था। उसका मन बहुत ही विचलित था। अचानक से उसे ठोकर लगी और वह रुक गया। उसके तन-मन में एक बिजली- सी कौँध गई वह एक पाँच सितारा होटेल के सामने खडा था ।
  रंगीन चमकते बल्बों के साथ होटेल का नाम लिखा था। विशाल चमकता पारदर्शी काँच के दरवाज़े पर स्वयं चालित दरवाज़े का बटन लगा हुआ था । भुवन अपने आप को रोक नहीं पाया । सीढीयाँ चलकर ज्यों ही दरवाज़े के पास आया, दरवाज़ा अपने आप खुल गया ।
  भुवन अंदर आ गया । अंदर आते ही एक शीत लहर उसके नथुनों को छू गई। तापमान बहुत ही सर्द था। ठंडे पानी की बौछार शरीर को भिगो रही थी । धुँधली रोशनियाँ अंधेरे से जूझ रही थी। पैरों को मखमली हरी दूब जैसे कालीन का एहसास हो रहा था। दुग्ध सफेद-सा सारा फर्नीचर लगा हुआ था । कमरे के बीचों-बीच एक फव्वारा लगा हुआ था। यूँ लगा रहा था जैसे की फव्वारे के पानी में चाँदनी घुल गई हो। सुंदर गुलाबों की क्यारियाँ झरने को घेरे हुए थी। वहाँ का कण-कण इस मन मोहक वातावरण और चाँदी की खनक में डूबा हुआ था। ठंडक खुशबू और फव्वारे में घुली चाँदनी  ने भुवन को मोह लिया ।
  भुवन एक टेबल के पास आकर बैठ गया। गले में बंधी टाई को ढीला किया। बैरे ने शीशे की चमकदार गिलास मे ज़ाम लाकर रखा तो लगा कि उसका मन भी ढीला हो गया ।  
  अचानक रंग-बिरंगी रोशनियाँ फैल गई। मोरनी-सी नाचती गाती एक युवती आई। नशे का सुरूर और बढ गया। भुवन भी नशे में बह गया उसके मन ने चाहा कि अपने ज़ाम में मिलाकर उस युवती को ही पी जाए । 

  वहाँ मौज़ूद हर कोई आँखों ही आँखों में उस युवती की तस्वीर को कैद करने की फ़िराक़  में था। सभी को उसका नृत्य और पहनावा आकर्षित कर रहा था। आसमां से उतरी परी की तरह उसका रूप- लावण्य था । सभी स्तब्ध- से उसे देख रहे थे।  
  भुवन का भी मन उसे पाने के लिए ललचाने लगा। एक रात उसके सामीप्य के लिए तडप उठा । उसका मन अपनी पत्नी से दूर भाग उठा।
  नृत्य की समाप्ति पर वह कपडे बदल कर आई तो भुवन ने अपनी इच्छा प्रकट की और अधिक पैसे देने का भी आश्वासन दिया ।
  युवती ने कोई आश्चर्य प्रकट नहीं किया। वह उसके पास आकर बैठ गई भुवन पूरी तरह उसके आकर्षण में घिरा था । तभी उस युवती ने  मुस्कुराते हुए अपने बटुए से कुछ कागज़ात निकाले और भुवन को दिए। उन कागज़ातों को पढकर भुवन का मुँह खुला का खुला रह गया और वह आश्चर्य चकित होकर एक झटके में खडा हो गया। उसमें लिखा था – नाम - कुमारी मधुमिता , उम्र- 20 वर्ष, लिंग – स्त्री , और साथ में अस्पताल की रिपोर्ट लगी थी जिसमें लाल स्याही से एच- आई- वी- पॉज़िटिव छपा हुआ  था । 
  उस युवती ने कहा – यह रिपोर्ट मेरी ही है। मेरे अंदर यह रोग पनपने लगा है। इस ग़म को भूलने के लिए मैं नाचती-गाती हूँ ऐसा मत सोचना । हम कुछ ऐड्स पीडित लडकियाँ एकत्रित होकर एक संस्था चलाते हैं । हमारा ख्याल तुम जैसे हर एक जवान आदमी को ऐड्स से बचाना है। हमारे  उत्तेजित नृत्य को देखने तुम जैसे अनेक जवाँ आते हैं और हमें पाने की चाह करते हैं तब हम उन्हें " हमें मत देखो हमारे रोग को देखो" कहकर उन्हें इस रोग से दूर रखने का प्रयास करते हैं । क्योंकि ऐड्स से पीडित हम मौत की ओर तेजी से भाग रहे हैं दूसरे मौत की ओर कदम बढा रहे हैं और  हम उन्हें बचाना चाहते हैं। इस तरह मरने से पहले कम से कम एक अच्छा काम करना ही हमारा उद्देश्य है। मन है फिसलेगा जरूर पर जब भी मन फिसले तो आईने के सामने खडे होकर एक ऐड्स पीडित आदमी की कल्पना करके देखना तब मन नहीं फिसलेगा और तुम में जीने की ताकत आ जाएगी। यह ज़िंदगी बहुत खूबसूरत है इसे यूँ गवाँना मत। कम से कम आने वाला युवा भारत तो ऐड्स के भय से मुक्त रहे यही हमारा लक्ष्य है
   अब तुम ही बताओ कितने पैसे देकर तुम मौत खरीदना चाहते हो । उसकी आँखों में आँसू भर आए थे फिर भी वह मुस्कुराते हुए चलने लगी कि सामने एक और युवक उसके इंतज़ार में था 
  भुवन का नशा छू हो गया और वह अपनी पत्नी से मिलने के लिए व्याकुल हो घर की ओर चल पडा ।

शुभम् 

स्वर्ण ज्योति

# 30 , 1st floor, 1st cross, Brinadavan, Saram Post,
PONDICHERRY – 605013
(MO) 9443459660

 



Thursday, January 24, 2019

सभी मित्रों को नमस्कार
मैं स्वर्ण ज्योति पाँडीचेरी से आप सब का मेरे इस ब्लोग में आमंत्रित कर स्वागत करती हूँ
वैसे तो मेरी मातृ भाषा कन्नड है और यहाँ की स्थानीय भाशा तमिल
परन्तु मैं हिन्दी में रचनायें लिखती हूँ । वास्तव मे मेरे लिए हिन्दी ही मेरी सखि सहेली और संबंधी भी है
२५ साल पहले जब मैं यहाँ आई थी तब मुझे तमिल नहीं आती थी और कन्नड के कोई भी दोस्त मुझे नहीं मिले तब मेरी सखी बन कर हिन्दी ने ही मुझे अकेलेपन से उबारा था रचनायें तो मैं सालों से करती थी परन्तु यहाँ आकर मेरी रचनाओं में निखार आया क्योंकि अकेलेपन में मैंने हिन्दी को ही दोस्त बना कर हिन्दी से ही बातें की। आज मेरी दो कविताओं की किताब  छप चुकी है। अभी मैंने एक तमिल काव्य संग्रह का हिन्दी में अनुवाद किया है और एक जैन ग्रंथ का जो कि कन्नड में है अनुवाद कर चुकी हूँ
 और भी कई पुस्तकों का अनुवाद कर रही हूँ । आज इंटरनेट के माध्यम से मैं आप सब को यह बातें बता रही हूँ जबकि मेरी रचनायें २५ साल पुरानी हैं आज आप सब तक पहुँचाने के लिए यह जरिया मिला है वरना यहाँ तो हिन्दी कोई पढता ही नहीं है, बावजूद इसके मैंने हिन्दी में काम करना नहीं छोडा । अब आप से गुजारिश है कि मेरी रचनाओं को पढ कर मुझे प्रतिक्रिया भेजें । इस ब्लोग में आप
मैं मेरी कविताओं के साथ-साथ कहानी और लेख भी पढ सकते हैं । आशा करती हूँ कि आप सब का सहयोग मुझे प्राप्त होगा ।
धन्यवाद सहित
स्वर्ण ज्योति
कविताएँ लिखना मुझे नहीं आता है क्योंकि मैंने कभी भी लिखने के लिए नहीं लिखा बस कभी कोई ख्याल मन में आया, कभी कोई दर्द दिल को तडपा गया, कभी कोई खुशी तन को महका गई तो कभी कोई सपना देख लिया, सारे ख्याल, सारे दर्द , सारी खुशियाँ और सारे सपनों को कलम के जरिए कागज़ को कह दिया अब कहने से ही तो दिल ह ल्का होता है न ।
हम सभी बहुत सारे सपने देखते हैं कभी -कभी दिन में जागती आँखों से भी सपने देखते हैंं
मैंने भी कुछ सपने देखे हैंं आप को मेरे सपनों के विषय में बताती हूँ देखिए हँसिएगा नहीं

कैसा होगा
कभी-कभी इस दिल ने ऐसा भी सोचा है,
तरन्नुमों* से खामोशी* तक,
इस राह से उस मँजिल तक,
बस फ़ूल ही फ़ूल हो तो कैसा होगा....?

कभी-कभी इस दिल ने ऐसा भी सोचा है,
सूरज की रोशनी से चँदा की चाँदनी तक ,
एक ऊषा से एक निशा तक ,
इतना फ़ासला ही न हो तो कैसा होगा...?

कभी-कभी इस दिल ने ऐसा भी सोचा है,
आसमां और धरती का मिलन ,
क्षितिज की इस कल्पना का,
सत्य में साकार हो तो कैसा होगा....?

कभी-कभी इस दिल ने ऐसा भी सोचा है,
सपने तो सपने हैं सपनों की हक़ीक़त क्या?
पर सपने भी सच्चे हो तो कैसा होगा......?

*जन्म
*मृत्यु







 होंगे

अक्षरों और शब्दों से बने वाक्य होंगे
बोलों और धुनों से सजे गीत होंगे
तेरे-मेरे बीच बंधे सब बन्धन
समय के पन्नों पर अंकित होंगे
हर तरफ खूबसूरत फ़िज़ा होगी
दिल के साज़ पर गूंजती सदा होगी
तेरे-मेरे प्यार का चाहे जो हो अंजाम
मोहब्बत की दास्तां हमेशा जवां होगी
तुझसे बिछड़ जाऊं इसका ग़म तो होगा
पर मेरे बाद मेरी वफाओं का संग होगा
तेरी मुस्कुराहट का वही गज़ब ढंग होगा
कि मेरे प्यार का उसमें घुला गहरा रंग होगा
ज़मी से फ़लक तक तेरा नाम होगा
मेरी ही यादों का पैग़ाम होगा
जाने वो कैसा मुक़ाम होगा
कि ज़मी पर फिर आशियाँ न होगा

पर हम होंगे यहीं होंगे------ 














Tuesday, June 12, 2018





कागज़ का टुकडा


सागर अलमारी में जल्दी-जल्दी कुछ ढूंढने में लगा हुआ था उसे काम में लापरवाही और समय की हेर-फेर से सख्त नफरत थी। इसी कारण वह बहुत गुस्से में था। ढूंढते-ढूंढते अचानक ऊपरी खाने से कुछ कागज़ात नीचे गिरकर बिखर गए।
 उफ….. क्या मुसीबत है अब इन्हें समेटने में समय लग जाएगा सोचते-सोचते - सागर नीचे झुक कर कागज़ात समेटने लगा ।  तब अचानक एक कागज़ का पुलिन्दा उसके हाथ लगा । थोडे मटमैले से हो रहे थे और पुराने भी हो गए थे । जिज्ञासावश उसने उसे खोला तो उसकी आंखें अतीत को देखने लगी । कुछ अतीत की यादों का दर्द ऐसा होता है जिसे समय का मलहम भी नहीं भर पाता । वैसे भी स्मृतियों को यादों की टहनी से कुरेदा जाए तो वह उडने लगती हैं । सागर ने एक कागज़ निकाल कर पढा,---- लिखा था—

प्रिय
 पता नहीं क्या हो गया है मुझे । शायद पागल हो गई हूं बस एक आप के ख्याल के सिवा दूजा कुछ ख्याल आता ही नहीं और कुछ सूझता ही नहीं । और एक आप हैं कि समझते ही नहीं या फिर समझ कर भी तटस्थ बने रहते हैं आपकी तटस्थता खलती है पर समय के साथ मैं भी इस तटस्थ्ता से तारतम्य  करने की कोशिश करूंगी।………..

एक और पत्र ---


प्रिय
बहुत बहुत प्यार
          महसूस किया तुम्हें तो गीली हुई पलकें
ये आंसू भी अज़ीब होते हैं कभी भी ढुलक जाते हैं । आज शाम से मन कुछ अधिक ही उद्विगन पर अचानक से ऐसा होना समझ की सीमा से परे है । तुम्हें देखने की इच्छा दिन पर दिन बलवती होती जा रही है। पर तुम शायद समय बंधन में बंधे हुए हो जितनी जल्दी हो सके आ जाओ -------

ऐसे ही अनेक छोटे बडे खत । स्वाति के द्वारा लिखे हुए खत सागर के नाम----

सागर को आज महसूस हुआ कि उसकी तटस्थता के कारण समय ने उससे बहुत कुछ छीन लिया। सागर को बीते दिन आ गए-----

उस कस्बे में सागर के पिता का अपना कारोबार था। जाति से ब्राह्मण और ऊंच-नीच को मानने वाले ऊंचे ओहदे का दबदबा भी था। बेटे के प्रति कुछ अधिक ही स्नेह, अनुराग का भाव रखते थे । साथ ही अपने बेटे पर उन्हें बहुत गर्व भी था क्यों न हो उस कस्बे में एक उनका बेटा ही शहर में पढ रहा था । सुदर्शन, सुशील, और सौम्य सागर पिता की किसी भी बात का विरोध नहीं करता । हां कभी-कभी उसे भी कोफ्त होती पर वह चुप कर जाता ।
सागर के घर के पास ही था स्वाति का घर । सेवानिवृत अध्यापक के बेटी । जाति से वे भी ब्राह्मण थे और आचार-विचार और रीति-रिवाज के पक्के। स्वाति उनकी चौथी बेटी थी। कार्यकाल में उन्होंने अपनी दोंनो बेटियों की शादी कर दी थी और सेवानिवृति के बाद मिले पैसों से तीसरी बेटी को भी विदा कर दिया था। उन दिनों स्वाति बहुत छोटी थी। परन्तु अब वह भी विवाह योग्य हो गई  थी । हालांकि वह अभी बारहवीं में ही पढ रही थी फिर भी पिता विवश और लाचार हुए जा रहे थे । स्वाति में आगे पढने की इच्छा बडी बलवती थी परन्तु वह पिता से कहने में लाचार थी वह भी पिता के आर्थिक स्थिति से अवगत थी न ।
सागर के घर में उसका आना-जाना प्रायः होता था । एक तो सागर के माता-पिता अकेले रहते और दूजे स्वाति अपनी सुघड़ता से सागर की मां के अनेक कार्य करा देती थी इस कारण भी। सागर के शहर से लौटने पर कभी पूडी , पनीर की सब्जी बना देती तो कभी दहीबडे । बहुत ही सहज और सामान्य परिचय था ।
इस बार जब सागर घर आया तो उसने एक विशेष बात गौर की, आजकल स्वाति घर पर कम आती थी। उसने मां से पूछा मां बोली –“ हां बेटा आजकल परेशान है इम्तिहान सर पर है और उसे अंग्रेजी और गणित में बहुत परेशानी हो रही है इस कारण घंटो सिर खपाती रहती है ।
मां इसमें मुश्किल क्या है आजकल तो अनेक लोग ट्यूशन लेते हैं किसी से भी ट्यूशन ले लेगी तो ठीक हो जाएगा,  सागर ने कहा
वो तो ठीक है बेटा पर तुम तो मास्टरजी की हालत जानते ही हो ऐसी हालत में वह इस विषय पर कैसे सोच सकती है ।
हूं….. सागर एक हुंकार भरकर चुप हो गया। शाम को वह मास्टरजी से मिलने घर गया मास्टरजी बाहर ही बैठे हुए थे। 
नमस्ते मास्टरजी ।  सागर ने कहा
अरे सागर बेटा खुश रहो, कब आए ?
बस सुबह ही आया हूं ।
स्वाति नहीं है क्या ?
अंदर है बेटा आजकल थोडी परेशान है स्वातिइइइ----- मास्टरजी ने आवाज़ लगाई । स्वाति चुपचाप आकर दरवाजे के पीछे खडी हो गई । सागर ने आज ही उसे ध्यान से देखा । गोरा रंग कुछ कुम्हला-सा गया था चेहरा थका-थका सा लग रहा था। यूं तो सागर उसे अनेकों बार अपने घर में देख चुका था परन्तु वह सब क्षण मात्र ही था कभी उसके बनाए व्यंजनों की तारीफ़ या फिर कोई फरमाईश । यूं भी सागर बहुत ही तटस्थ रहता । अधिक बात करना उसका स्वभाव नहीं था ।
स्वादिष्ट भोजन से मन खुश कर देने वाली स्वाति आज थोडी उदास सी खडी थी सागर को थोडा सा बुरा लगा उसने पूछा  ---- स्वाति आज कुछ नहीं खिलाओगी क्या ??? स्वाति एक फीकी से हंसी हंस दी।
स्वाति इतना परेशान होने की जरूरत नहीं है तुम चाहो तो मैं तुम्हें अंग्रेजी और गणित पढा दिया करूंगा अभी मैं यहां दस दिनों तक हूं । सागर ने कहा
सागर पढा लिखा तो था  ---- पर स्वयं सागर को बहुत बाद में पता चला कि वह कितना पढा लिखा था ।
स्वाति के चेहरे पर चमक आ गई “ सच आप मुझे पढा देंगें तब तो जरूर मैं अच्छे नंबरों से पास हो जाऊंगी”। मास्टरजी को भी थोडा सकून मिला।
उन्हीं दिनों सागर और स्वाति रूबरू हुए। रोज शाम को स्वाति सागर से पढ लिया करती । जिसके बदले में वह कभी कचौडी तो कभी गुलाब जामुन तो कभी  समोसे या फिर कोई और व्यंजन बना कर सागर को खुश कर देती।
यूं तो कोई विशेष लगाव जुडाव सागर को नहीं था बस औपचारिकतावश पढा दिया करता । दस दिनों बाद सागर को जाना था } स्वाति से मिल कर उसे इम्तिहान के लिए शुभकामनाएं देकर सागर चला गया।
स्वाति के इम्तिहान समाप्त हो गए । आगे की पढाई की कोई गुंजाइश नहीं थी इस कारण घर पर ही रहती । बस कुछ समय के  लिए सागर के घर जाती वरना अधिकतर समय घर पर ही गुजार देती ।
सागर का बडे दिनों बाद घर आना हुआ । आने पर ज्ञात हुआ कि स्वाति आगे नहीं पढ रही है और सारा समय यूंही निकाल देती है । वैसे भी वह समय को व्यर्थ करना एक बडा गुनाह मानता। इसी कारण वश वह शाम को मास्टरजी से मिलने गया । जब उसने इस विषय पर चर्चा छेडी, तभी उसे पता चला कि मास्टरजी वास्तव में क्या सोचते हैं । मास्टरजी ने कहा –
 “ अब क्या पढाना अधिक पढा दूंगा तो शादी ब्याह में अडचनें आएंगी । अधिक पढा लिखा दूल्हा ढूंढना पडेगा और फिर दहेज भी अधिक देना पडेगा अब मेरी इतनी हैसियत भी नहीं है”।
ऐसा नहीं है मास्टरजी अब जमाना बदल रहा है आजकल कई नौजवान पढी-लिखी लडकी चाहते हैं और दहेज का भी विरोध करते हैं । और स्वाति भी तो घर में छोटी कक्षाओं की ट्यूशन करके समय का सदुपयोग करते हुए अपनी पढाई जारी रख सकती है । वैसे वह घर पर रह कर दूर विद्या से भी आगे पढ सकती है । उसकी पढाई भी हो जाएगी और वह आत्म निर्भर भी । आत्म निर्भरता, आत्म विश्वास को बढाता है । आप उसे पढने दीजिए। सब ठीक हो जाएगा आप परेशान न होंवें।
सागर की कोशिशों से मास्टरजी  स्वाति को आगे पढाने के लिए मान गए। और यहीं एक नए अध्याय की शुरूआत भी हुई ।
सागर की दिलचस्पी ने मास्टरजी के मन में एक अनजानी चाह जगा दी। स्वाति के मन में कई दिनों से ऐसे भाव उमड-घुमड रहे थे। परन्तु सागर की तटस्थता को देखकर उसे कुछ कहने में भय –सा लगता ।
यूं भी सागर दो टूक बात कहने का आदि था और दूसरों से भी यही अपेक्षा रखता ताकि कई बातें की जा सके परन्तु स्वाति को कुछ भी कहना इतना आसान नहीं होता वैसे भी लडकियां थोडी संकोची स्वभाव की होती है जिससे उन्हें सीधे मुद्दे की बात कहना कठिन लगता है ।
     इस रिश्ते में कोई दिक्कत तो थी नहीं क्योंकि सागर की मां को भी सुंदर सुशील स्वाति पसंद ही थी । और अब सागर की दिलचस्पी ने बात को थोडा और आगे बढा दिया था।  दो –चार दिन रहकर सागर चला गया। जाने से पहले वह स्वाति से मिलने आया । वह ऊंगली पर दुपट्टा लपेटती, पैर के अंगूठे से जमीन कुरेदती, नज़र झुका कर चुपचाप खडी रही । कुछ नहीं बोल पाई और सागर चला गया स्वाति खडी उसे देखती रही कि वह पीछे मुड कर देखेगा पर नहीं सागर चला गया ।
 स्वाति की पढाई शुरू हो गई । अनेकों बार सागर घर लौटा और स्वाति से भी मिला । स्वाति और सागर के बीच दूरियां कम होने लगी थी । स्वाति के पैर जमीन पर ही नहीं पडते थे ।
फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि सब उलट गया स्वाति का विवाह किसी और से कैसे हो गया । सागर को इस बात का पता तब चला कि जब सगाई को केवल चार दिन शेष रह गए थे अब पिताजी से कैसे बात करूंगा यह सोच कर उसने मां से बात की और जो कुछ भी मां ने बताया, सुनकर उसकी सारी खुशियां खत्म हो गई । बात कुछ यूं हुई कि
 जब  मास्टरजी ने सागर के घर बात चलाई तब कोई दिक्कत नहीं थी सब ठीक ही लग रहा था । परन्तु अचानक से सागर के पिता को यह रिश्ता ठीक नहीं लगने लगा । उन्हें दहेज कम मिलने की उम्मीद तो थी ही फिर भी उन्होंने सागर की इच्छा के आगे इस रिश्ते को स्वीकारा तो था पर अब उन्हें कुंडली में दोष दिखने लगा था ।
उनका कुंडली पर इतना विश्वास था कि वे हर बार सागर के जाने से पहले समय, दिन, तारीख और नक्षत्र सभी देख कर ही सागर को जाने देते । स्वाति की कुंडली को उन्होंने कईयों को दिखया । जितने मुंह उतनी बातें कोई कहता सब ठीक है, तो कोई कहता यह शादी होगी तो दोंनो को एक साथ कई तकलीफ़े सहनी पडेगी, तो कोई कहता कि संतानोत्पत्ति में बाधा आएगी विकलांग संतान हो सकती है, तो कोई कहता लडकी का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहेगा। इस तरह पिता की रूढिवादिता और अंधविश्वास ने इस रिश्ते को अधर में लटकाए रखा।
 सागर की मां ने बहुतेरा समझाया कुंडलियां जिन्दगी का निर्णय नहीं लेती वे तो बस एक मार्ग दिखाती हैं । खुशी और दुःख तो हमारे स्वभाव में निहित हैं हमारे अपने मन के कारण हैं । बच्चे खुश रहेंगे दोंनो एक दूसरे को पसंद करते हैं अपने आप को , एक दूसरे को समझ कर संभाल  लेंगे। एक कागज़ के टुकडे को दोंनो की जिन्दगी का निर्णय लेने का अधिकार न दें । लडकी अच्छी है सागर को भी पसंद है घर में घुल-मिल कर रहेगी ---- पर नहीं एक कागज़ के टुकडे ने ही उनकी जिन्दगी का निर्णय लिया और पिता ने रिश्ता लौटा दिया
      सागर ने कुछ नहीं कहा यही आश्चर्य की बात रही । शायद कहीं अनजाने में वह भी इन सब बातों पर यकीन करता था या पिता को नाराज़ नहीं करना चाहता था या पिता से डरता था। पता नहीं पर वह चुप्पी साध गया।
मास्टरजी थोडे नाराज़ थोडे क्रोधित पर मजबूर से हो रहे और उन्होंने स्वाति की शादी कहीं और तय कर दी। उसे अच्छा घर-परिवार और वर मिला वह खुश रहेगी इसका सागर को विश्वास हुआ ।
जिन्दगी अपने हिसाब से चलने लगी थी । सागर का अब कस्बे में आने का मन नहीं करता। बार-बार वह पिता को दोषी मानता । अपने नसीब को खोटा समझता। यूं ही दिन बीतने लगे थे। स्वाति से वह दुबारा नहीं मिल सका । परन्तु करीब १० साल बाद वह जब घर आया, तब तीज के अवसर पर स्वाति भी घर आई हुई थी । साथ में उसकी खूबसूरत बेटी भी थी । सागर को मां ने खबर दी ।
सागर का मन एक बार फिर से स्वाति से मिलने का हुआ पर मन में चोर भी छुपा था परन्तु उसे यही ख्याल आया कि स्वाति उसकी मजबूरी समझ पाएगी और उसे माफ़ कर देगी। एक बार तो स्वाति से मिलकर उसे स्थिति से अवगत कराना ही चाहिए यही सोच कर वह स्वाति से मिलने गया।
 सागर को देख स्वाति धीमे से हंस दी । सागर को लगा जैसे उसकी हंसी व्यंग्यात्मक हो । सागर ने देखा भारी साडी और भरी मांग में स्वाति बहुत खुश और खूबसूरत लग रही थी। सागर ने पूछा कैसी हो?
बहुत खुश मेघ जी बहुत अच्छे इंसान है समझदार समय की नाजुकता को समझने वाले संवेदन शील इंसान है मन को समझते हैं और स्वभाव से नरम हैं मैं वास्तव में बहुत खुशनसीब हूं  
खुशी हुई जान कर कि तुम खुश हो । मैं ही बदनसीब हूं पिताजी ने मेरा जीवन ही बरबाद कर दिया । सिर्फ़ चार दिन थे तब मुझे समाचार मिला समय ही नहीं दिया ----
नहीं सागर -----बीच में ही स्वाति बोल पडी---- आप गलत कह रहें हैं दूसरों पर दोषारोपण करके आप स्वयं को सही साबित करने की गलत कोशिश कर रहें हैं । आप तो पढे लिखें हैं न ---
स्वाति का यह वाक्य सागर को तीर की तरह चुभा।
खूब दुनिया भी देखी है फिर कैसे पिता की बातों को मान बैठें। क्या आप को नहीं पता था कि मैं आप का ही इंतजार कर रही हूं । होने को तो क्षणों में भी बहुत कुछ हो सकता है आप के पास तो चार दिन थे । आप अपनी बात कह सकते थे, पिता को समझा सकते थे, समय की चाल दिखा सकते थे पर आप हमेशा की तरह तटस्थ रहे । आप भी एक कागज़ के टुकडे पर इतना विश्वास कर बैठें कि हमारे प्यार की, सामंजस्य की सारी बातें आप को बेमानी लगने लगी । आप तो मेरा स्वभाव जानते थे, मेरे चाल-चलन से वाकिफ़ थे रहन –सहन से परिचित थे फिर भी आप ने एक कागज़ के टुकडे के द्वारा लिए गए निर्णय  को ही अहमियत दी । आप ने ऐसी भूल कैसे की??? खैर अब तो आप खुश है न ???? इस बार वास्तव में स्वाति ने व्यंग्य ही किया । स्वाति की इस बात को सुनकर सागर फिर अतीत में लौट गया।
स्वाति की शादी के एक –दो साल बाद सागर की भी शादी हो गई । पिता ने बहुत देखभाल कर कुंडली का मिलान कर बहू पसंद की । दहेज भी अच्छा-खासा मिला और बहू भी सुंदर । सागर भी बहुत खुश था । परन्तु कहते हैं न कि दूर के ढोल सुहावने होते हैं । बहू के तौर –तरीके सागर के घर में नहीं जमें । बहू को कोई भी बात अच्छी ही नहीं लगती थी। सागर खाने-पीने का शौकीन तो वह परहेज पर विश्वास करती ताकि शारीरिक सुदंरता बनी रहे। रीति-रिवाज को ढकोसला कहती । सुबह देर तक मुंह ढांपे सोती रहती और काम –काज से जी चुराती घूमने-फिरने को तैयार मिलती । कहा जाए तो बडे घर की बडे नखरे वाली । सागर की जिन्दगी नर्क बन गई । मां –पिता के साथ रहना उसे गवारा नहीं था और सागर अलग रहने को तैयार नहीं था । दिन पर दिन कलह बढता ही गया । साथ ही सागर का पिता पर क्रोध बढता गया मां से भी नाराज़ रहने लगा । अपने आप को हालात और परिस्थितियों का मारा समझ टूटने लगा ।
मां ------ स्वाति की बेटी की आवाज़ सुनकर सागर चौंका । वह स्वाति को बुलाने आई थी । स्वाति ने सागर से जाने की इजाज़त मांगी सागर ने मौन सहमति दे दी। अब उस के पास कहने सुनने के लिए कुछ भी शेष नहीं बचा था। वह भी चुपचाप थके कदमों से बाहर निकल पडा । उसके कानों में स्वाति के अंतिम बोल गूं ज रहे थे।
विद्या विनयं ददाति । विद्या हमें विवेक शील विनय शील और समय के साथ चलना सिखाती है । समय के साथ बदलना और जीना सिखाती है पर आप कूपमंडूक ही बने रहे तो इसमें किसी और का क्या दोष । आप किसी और को दोष देकर अपने आप को सही साबित करने की भूल न ही करें तो अच्छा है ।
सच ही कहा स्वाति ने उसने केवल हालात और पिता को ही दोषी माना उसने तो कोई भी प्रयत्न ही नहीं किया । सागर में गहरे तल में ही स्वाति मोती छिपी होती है गहरे डुबकी लगाने वालों को ही वह मिलती है। समय के साथ कदम बढाते हुए परिवर्तनों को सही अर्थों में स्वीकारना अपनी खुशियों को पाने का सही मार्ग है।
सागर को इसका ज्ञान हुआ, पर अब बहुत देर हो चुकी थी।






Friday, May 25, 2018


                  नमस्कार साथियों ...  हर दिन हम अपने कई भावों को  विचारों  को लिखते हैं पढते हैं आज इसी रचना की प्रेरणा पर ही कुछ लिखने की कोशिश की है। आशा करती हूँ कि आप सभी को अच्छा लगेगा।       
रचना की प्रेरणा
मानव कि नैसर्गिक प्रवृत्तियों में भावात्मक स्तर पर कहने और सुनने कि प्रवृत्ति प्रबल होती है। यह जन्मजात प्रवृत्ति अपने को प्रकट करने के लिए उत्सुक रह्ती है। समाज, समय, संदर्भ और स्थिति के अनुसार यह प्रवृत्ति अपना आकार-प्रकार और रूप धारण करती है। मानव अपनी भावनाओं और वेदनाओं को अपने परिवार तथा समाज के उन व्यक्तियों के सामने प्रकट करता है, जिनसे वह निकट संपर्क में आता है। रचनाकार भी एक सामन्य आदमी की भाँति सामाजिक प्राणी होने के नाते इन सभी स्थितियों से गुजरता है। वह जो कुछ भी देखता है, सुनता है, भोगता है, उसे अपने ढंग से उसे अपने एकांतिक क्षणों में अभिव्यक्त करता है।
अपने किसी अनुभव को लेकर अथवा किसी घटना से प्रेरित होकर जब रचना का सृजन होता है, तब वह एक प्रकार से वास्तविकता को गल्प में बदलना होता है। यथार्थ को रचना का रूप देना होता है। यह रचनाकार की अपनी निजी ज़िंदगी की बात है, उसके आंतरिक संघर्ष की बात है, जिसमें वह रचना लिखने की प्रक्रिया से जूझ रहा होता है। आत्मसंघर्ष के द्वारा रचना एकांत के क्षणों की सहचरी बन जाती है ।
मानव-हृदय में गहरी वेदना के साथ कुछ सपने भी होते हैं। सपनों में ऐंद्रिय सुख की मांसलता है, तो यथार्थ में वेदना की आंतरिक टीस और जल्द- से- जल्द सब-कुछ ठीक हो जाने की चाह। यह आत्म संघर्ष रचना को आत्मीयता प्रदान करता है, जिसे रचनाकार कागज पर उकेरता है ।  
रचना की मूल प्रेरणा जीवन से ही मिलती है। रचना की तह में कहीं- न-कहीं, कोई-न-कोई जाना-पहचाना पात्र अथवा कोई वास्तविक घटना होती है। मूलतः रचना कल्पना की उडान नहीं होती। रचना केवल आत्माभिव्यक्ति में लिखी जाती है, ऐसा नहीं है। यह जीवन का कोई सत्य उद्घाटित करती है। यह सामाजिक यथार्थ का और उसके परिणाम से विकसित मनोभावों अंतर्विरोध या अंतर्द्वंद्व प्रस्तुत करती है। सचेत रूप से किसी लक्ष्य को लेकर, उसे न लिखा गया हो, पर रचना जीवन की भी उपज होती है।
संवेदना और  अनुभूति कविता की महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ हैं। रचनाकार अपने-आप को परिवेश के संदर्भ में जानने-समझने, परखने तथा पाने की कोशिश में कुछ संवेदनाओं को, भावों को अपने अंदर उमड्ते-घुमडते पाता है,  उनको द्वंद्व  करते देखता है, उन्हीं भावों को कागज पर उकेर देने से रचना का जन्म होता है । अनेक परस्पर विरोधी वृत्तियों के बीच मनुष्य अपनी ज़िंदगी को बेहतर बनाना चाहता है,  रचना अनेक भावों को उतारने का प्रयास है।