Monday, January 29, 2007

आज के युवा वर्ग पर लिखी है यह कविता अनेक आशाएँ लेकर शिक्षा पूरी करना और फिर यूँही भटकना और शायद इस भटकाव से ही किसी गलत राह पर चलने की मजबूरी को पालना

युवा

एक अधखुला झरोखा
दो प्यासे नयन झाँकते
इधर-उधर आते जाते
लोगो को उत्सुकता से ताकते

अस्तित्व-अस्मिता की लेकर आस
ढूँढें हैं गली-गली ब्रह्म में रख विश्वास
सत्य और यथार्थ का एहसास
जलाता है आशाओं को जैसे जले कपास

दिल की आग पर उबलता है
चढती-ढलती सांसों का पानी
शोला बनकर है भडकता
बैचेन मजबूर जवानी

राख के नीचे चिनगारियों का
आग बनने का है सबब
छोड नीति-रीति और तहज़ीब
गर्म खून में आई रवानी

हाय रे जवानी

सुरमई बनी सिन्दूरी शाम
समय का पहिया घूमा दूसरे धाम
जिन्दगी ने नहीं दिया कोई नाम
अब भी यह वही इंतजार का काम

1 comment:

Anonymous said...

स्वर्णाजी, आप sunonarad@gmail.com पर निवेदन ई-मेल भेज दें कि आपके ब्लॉग को नारद सूची में जोड़ा जा सके।

आपके ब्लॉग पर आने वाली नई कविताओं की सूचना तब तक मुझे ई-मेल के द्वारा देती रहें ताकि मैं आपकी सुन्दर कृतियों का आनन्द ले सकूँ।

आज के युवा वर्ग पर आपका काव्य बिलकुल सटिक है... अच्छा लगा।