इस कविता को एक तस्वीर देख कर लिखि थी जिसमें बर्फ़ से ढकी हिमालय की चोटी और नीचे हरी दूब
कुछ ऐसा ख्याल मन में आया
हिमखंड
ऐ हिमखंड !
तू कर न घमंड
तू दिखे
श्वेत,स्वच्छ, निर्मल
रूई के फ़ाहे-सा कोमल
तू चमके आईने-सा उज्जवल
तू खूबसूरत जैसे चांदनी
तुझमें गई है घुल
पर तुझको यह नहीं एहसास
कि तू भोग रहा है मृत्यु दंड
ऐसे न तू कर हठ
जरा झुक नीचे तो देख
लिखा है हरी दूब ने लेख
तुझ से है जो श्रेष्ठ
कोई सहला तो कोई निहार
है उसको जाता
कोई भोजन, कोई पूजन
के लिए ले जाता
छोडकर अपना धाम
आती दूजे के काम
तेरी है क्या बिसात
कि तू न छोडे अपनी औकात
तू क्या जाने जीवन की बात
कि तू कब रहा जीवन के साथ
तू न पिघले न झुके
न करे धरती स्पर्श
Wednesday, January 03, 2007
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4 comments:
आपको पढना अच्छा लगा ।
kool comparisons.....
कविता मन को स्पर्श करती है । धन्यवाद । लगातार लिखते रहें ।
आपकी कविता देखकर मजा आ गया । आप इस ब्लॉग को क्यों सार्वजनिक नहीं कर रही थी । कविता अपनी भाषा, कथ्य और संप्रेषणीयता के कारण कारगर बन पड़ी है ।
जयप्रकाश मानस
www.srijangatha.com
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