अलकों का छल्ला
स्वर्ण विहीन तर्जनी तुम्हारी
बहुत सुन्दर है लगती
दाने चावल के जब चुनती
आँखें कोहीनूर सी चमकती
राह प्रिय की हैं तकती
श्रंगार रहित चेहरा
नाक में लौंंग है पहना
लंबी सुराहीदार गरदन
काला तिल ही है गहना
कंकड जब उछालती
चूडी छन से खनकती
कहीं का कहीं गिर कंकड
आवाज़ ख्न से गूँजाता
आहट प्रिय की जान
मासूम मन है चौंकता
अनगिनत काजों को नकारती
दीवार पर जडी तस्वीर की तरह
दहलीज़ पर बैठी मुस्काती
चेहरे पर अलकों को
खोलती, लपेटती, खेलती
उँगली में छल्ला बना पहनती
स्वर्ण विहीन तर्जनी तुम्हारी
बहुत सुन्दर है लगती
Tuesday, December 26, 2006
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3 comments:
श्रंगार रहित चेहरा
नाक में लौंग है पहना
लंबी सुराहीदार गरदन
काला तिल ही है गहना
आपकी उक्त पंक्तिया मानो मेरे प्रितम का चेहरा समेटे हैं. आपकी कृति हमेशा की तरह बहुत सुन्दर लगी.
आप बधाईं की पात्र हैं. शुभकामनाएँ.
- गिरिराज जोशी "कविराज"
बहुत ही सुन्दर रचना है।
आप हिन्दी चिट्ठाजगत में नई होंगी... आपसे अनुरोध है कि आप नारद तथा हिन्दीब्लोगस.कोम पर अपने ब्लोग को जोडने का मेल कर दें...
आशा है आपका लेखन जारी रहेगा
आपने सुनदर लिखा है
श्रंगार रहित चेहरा
नाक में लौंग है पहना
लंबी सुराहीदार गरदन
काला तिल ही है गहना
मेरे नज़र मे उपरोक्त पक्तियॉं अपने आप मे आपकी काव्य क्षमता की ओजस्विता को बातती है।
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