
काग़ज़ और कलम
एक दिन जब मैंनें
कुछ शब्द लिखें
तत्क्षण काग़ज़ पर
कुछ आँसू देखे
हर्फ़ सब हुए थे तर
रंग हुआ था बदतर
हादसा था अज़ीब
कह रहा था काग़ज़ कलम से अपना नसीब
तुम मुझ पर क्यों हो फिरती
रंगरूप मेरा बिगाड हो देती
मुझे काले-नीले रंगों से
क्यिं हो भर देती
मैं नहीं मानती
तुम्हारा तर्क
तुम्हारी क्या कीमत
बिना हर्फ़
रहोगे कोरे तो
पडे रहोगे कोने में
मैंनें ही पहुँचाया है
तुमको कोने-कोने में
छोडो यूँ न करो तकरार
बढाओ न बात को बेकार
एक शाश्वत सत्य यह जान लो
तुम दोनों हो समान मान लो
रंगरूप मेरा बिगाड हो देती
मुझे काले-नीले रंगों से
क्यिं हो भर देती
किसी के अस्तित्व को निखार
मुझे कलंकित हो कर देतीमैं नहीं मानती
तुम्हारा तर्क
तुम्हारी क्या कीमत
बिना हर्फ़
रहोगे कोरे तो
पडे रहोगे कोने में
मैंनें ही पहुँचाया है
तुमको कोने-कोने में
छोडो यूँ न करो तकरार
बढाओ न बात को बेकार
एक शाश्वत सत्य यह जान लो
तुम दोनों हो समान मान लो
यह कविता सृजन गाथा पत्रिका में भी छप चुकी है
3 comments:
बढ़िया कविता लिखी है!
आप तो बहुत अच्छी कविता लिखती हैं | बहुत अच्छा लगा पढ़ कर जिस प्रकार से आपने भावनाओं को शब्दों में उतारा है | काफ़ी समय से नई कविता नहीं दिखी आप की | कविताएँ लिखती रहें |
- नंदा
हिंदी में लिखने के लिए quillpad.in का प्रयोग करके देखें |
नन्दा जी नमस्कार और धन्यवाद पुनः कार्य आरंभ किया है नई रचनाओं को भी आप की प्रतिक्रिया अपेक्षित है।
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