यूँ तो यह कविता एक-बारगी पढने पर साधारण सी प्रेम कविता लगती है परन्तु यह कविता कबीर के राम के लिए निर्गुण भाव को दर्शाती हुई जैसी प्रेम कविता है सच ही है हम अपने राम को कहाँ किस रूप में रख पायेंगें
तेरा अक्स
मैंने तुमको कैसे-कैसे अक्स करना चाहा.....
आँखों में काजल बनाकर रखना चाहा
पर तुम बह गए अश्रु बन कर
होंठों पर मुस्कान बना कर रखना चाहा
पर तुम घुल गए मोम बन कर
गालों में लाली बना कर रखना चाहा
पर तुम उड गए कपूर बन कर
बालों में कली का गजरा बनाकर रखना चाहा
पर तुम मुरझा गए फूल बन कर
हाथों में कँगन बना कर रखना चाहा
पर तुम टूट गए सपना बन कर
पर तुम्हें किसी अक्स की क्या ज़रूरत....
तुम तो महकते हो सांसों में खुशबू बन कर
धडकते हो दिल में धडकन बन कर
गूँजते हो कानों में सरगम बन कर
बहते हो मन में मधु बन कर ।
Friday, November 17, 2006
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
2 comments:
तुम तो महकते हो सांसों में खुशबू बन कर
धडकते हो दिल में धडकन बन कर
गूँजते हो कानों में सरगम बन कर
बहते हो मन में मधु बन कर ।
बहूत खूब स्वर्णा जी!
(संभव हो तो टिप्प्णी करने की सुविधा ब्लोगर के अलावा अन्य लोगों के लिये भी करें)
अति सुन्दर!!!
बालों में कली का गजरा बनाकर रखना चाहा
पर तुम मुरझा गए फूल बन कर
हाथों में कँगन बना कर रखना चाहा
पर तुम टूट गए सपना बन कर
पर तुम्हें किसी अक्स की क्या ज़रूरत....
बहुत खूब!!!
Post a Comment