Friday, November 17, 2006

यह कविता कुछ २५ सालों पहले लिखी थी पर आज भी लगता है कि यह बात उतनी ही सच है जितनी उस समय थी

ख़ूने जिग़र

एक खूबसूरत शाम ढले
कोरे काग़ज़ का टुकडा
दिया था किसी को
"लिख दो" कुछ कह कर कि
जाने अब हम कब मिले.....?

पाया मैंने ऐसा उत्तर....

लिख न पायेंगे कुछ
कैसे कह दें
नहीं आता लिखना कुछ
क्या ऐसा लिख दे

मैं हँस पडी........

दी है उसी ने दुआ
लाल स्याही से
जैसे लिखा हो
ख़ूने जिग़र से

1 comment:

गिरिराज जोशी said...

लिख न पायेंगे कुछ
कैसे कह दें
नहीं आता लिखना कुछ
क्या ऐसा लिख दे


क्या शब्द-संगम है? लाजवाब!!!