अलकों का छल्ला
स्वर्ण विहीन तर्जनी तुम्हारी
बहुत सुन्दर है लगती
दाने चावल के जब चुनती
आँखें कोहीनूर सी चमकती
राह प्रिय की हैं तकती
श्रंगार रहित चेहरा
नाक में लौंंग है पहना
लंबी सुराहीदार गरदन
काला तिल ही है गहना
कंकड जब उछालती
चूडी छन से खनकती
कहीं का कहीं गिर कंकड
आवाज़ ख्न से गूँजाता
आहट प्रिय की जान
मासूम मन है चौंकता
अनगिनत काजों को नकारती
दीवार पर जडी तस्वीर की तरह
दहलीज़ पर बैठी मुस्काती
चेहरे पर अलकों को
खोलती, लपेटती, खेलती
उँगली में छल्ला बना पहनती
स्वर्ण विहीन तर्जनी तुम्हारी
बहुत सुन्दर है लगती
Tuesday, December 26, 2006
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