Wednesday, February 07, 2007

आज की राजनीति पर एक व्यंग्य


नया कुरुक्षेत्र

खेल रहा है दाँव शकुनि -सा

साम-दाम-दंड-भेद अपना कर
भोग रहा है राज दुर्योधन-सा

सत्यमेव जयते हैं कुछ कहते
पर रखें ज़ुबां बंद विदुर-सा

हैं कई लक्ष्य निशाने पर
नहीं है तीरंदाज अर्जुन-सा

सौ करोड की सेना है पर
नहीं है सेनापति द्रोण-सा

है खडा तैयार प्रगति का रथ
नहीं है हाँकने को सारथी कृष्ण-सा

यही पूछे है जन-मन यक्ष प्रश्न
नहीं है उत्तर देने को धर्मपुत्र युधिष्ठर-सा

था वह युद्ध पाँडव और कौरव का
है यह युद्ध मानव से मानव का

बना था केवल अट्ठारह दिन का युद्ध्क्षेत्र

कैसी है ये राजनीति कैसा है ये राष्ट्र
कुछ बने हैं गांधारी कुछ हैं धॄतराष्ट्र

शतरंज बिछा कर हर कोई

आज तो बन गया है जीवन ही कुरुक्षेत्र

कैसी ये राजनीति कैसा ये राष्ट्र......?

5 comments:

Anonymous said...

स्वर्णाजी, सच कहा है और बहुत ही सुन्दरता से कहा है। वर्तमान राजनीति भारतीय सांस्कृतिक गरिमा को शर्मशार कर रही है, बहुत दुख होता है यह सब देखकर...

ePandit said...

सरल कविता, सुन्दर अहसास।

Dr.Bhawna Kunwar said...

अच्छी रचना है। बधाई।

Sagar Chand Nahar said...

कटु सत्य बयाँ किया स्वर्णाजी आपने
बहुत सुन्दर रचना, साधूवाद स्वीकार करें।
www.nahar.wordpress.com

Divine India said...

जीवन तो पहले भी कुरुक्षेत्र था और आज भी है…पर पहले कम लोगों के मध्य संग्राम था अब बहुतों के मध्य शुरु है…यह है व्यक्तिगत उच्चाकांक्षा का कुरुक्षेत्र जिसमें जंग है तृष्णा का.…
बहुत खुब्…सुंदर॥