Tuesday, December 26, 2006

अलकों का छल्ला

स्वर्ण विहीन तर्जनी तुम्हारी
बहुत सुन्दर है लगती

दाने चावल के जब चुनती
आँखें कोहीनूर सी चमकती
राह प्रिय की हैं तकती

श्रंगार रहित चेहरा
नाक में लौंंग है पहना
लंबी सुराहीदार गरदन
काला तिल ही है गहना

कंकड जब उछालती
चूडी छन से खनकती
कहीं का कहीं गिर कंकड
आवाज़ ख्न से गूँजाता
आहट प्रिय की जान
मासूम मन है चौंकता

अनगिनत काजों को नकारती
दीवार पर जडी तस्वीर की तरह
दहलीज़ पर बैठी मुस्काती
चेहरे पर अलकों को
खोलती, लपेटती, खेलती
उँगली में छल्ला बना पहनती

स्वर्ण विहीन तर्जनी तुम्हारी
बहुत सुन्दर है लगती