Thursday, March 29, 2018


मनीऑर्डर
मैंने पुस्तकें उठाई और एक बार फिर अपना चेहरा आईने में निहारा तो खुद-ब- खुद मुस्कुरा उठी। हूँ सुंदर दिख रही हो आईने  ने कहा – मैं कॉलेज जाने के लिए बाहर निकली तो काकी की आवाज़ सुनाई दी,  यह कोई आज की बात नहीं थी रोज ही का सिलसिला था –
काकी ने हाथ से रोकते हुए कहा – देख गुडिया तू लडकों के कॉलेज में पढती है, ज़रा खयाल रखा कर,  सावधान रह,  किसी से अधिक दोस्ती मत  करना,  अरे दुपट्टा तो ठीक से ओढ .... आदि आदि 
ऐसी हिदायतें  काकी रोज ही देती । सभी बडे-बूढों की भाँति काकी भी हिदायत देती,  यह मुझे सहज ही लगता था , इसी कारण मैं कभी सुनी-अ‍नसुनी कर देती तो कभी झल्ला कर कह उठती – ओफ्हो, काकी,  मैं कोई छोटी बच्ची नहीं हूँ अपना भला बुरा समझती हूँ तुम बेकार ही चिंता करती हो ...
काकी हँस कर कहती,  हाँ हाँ तुम बच्ची नहीं हो पर तुम्हें दुनिया की समझ भी नहीं है ।  
गौर वर्ण की काकी की उम्र कोई 60-65 के आस-पास होगी , परंतु चेहरे पर बहुत ही तेज झलकता था । बहुत ही गांभीर्य था,  एक बार देख लेने के पश्चात पुनः देखने का आकर्षण था,  यौवनावस्था में काकी बहुत ही सुंदर रही होगी । काकी हमारे चॉल  में एक छोटी सी खोली में रहती थीं। बिना काम के बैठ समय काटना उन  का स्वभाव नहीं था ।  उन को चॉल में सभी मानते थे उन के ना रहने से चॉल के सभी काम प्रायः बंद हो जाते।  चाहे किसी का भी काम हो कैसा भी काम हो काकी हमेशा तैयार रहतीं।  काकी कभी दाई बन जाती तो कभी वैध कभी महाराजिन तो कभी हलवाई । काकी के हाथ में जादू था । काकी के धीर गंभीर व्यक्तित्व और निस्वार्थ सेवा के स्वभाव के कारण काकी को सभी बहुत प्यार करते परंतु काकी की अपनी ज़िंदगी के विषय में कोई कुछ नहीं जानता था वह सभी के लिए एक रहस्य के समान था ।
मुझे काकी के विषय में जानने की बडी उत्सुकता थी।  काकी मुझे गुडिया कह कर बुलाती और मुझसे बहुत ही स्नेह करती और इसी कारण मैं भी काकी को कभी कभी छेडते हुए पूछ बैठती –
काकी तू तो इतनी सुंदर है काका कैसे थे बोल ना काकी 
पर काकी हमेशा की तरह मुस्कुरा कर मुझे टरका देती। मैंने माँ से पूछा माँ ने कहा –
देख इस चॉल को बने 30 साल हो गए । आज तू काकी को जैसे देख रही है काकी कल भी ऐसे ही थी उसकी हालत में कोई बदलाव नहीं आया है हाँ थोडी बूढी हो गई हैं  चॉल के ही लोग उनकी देखभाल करते हैं आज तक उनके घर से कोई नहीं आया न कोई रिश्तेदार ना कोई सगा
काकी का खर्चा कैसे चलता है माँ
तू तो जानती है काकी के हाथों में जादू है बस यही उसकी जीविका का भी साधन है वैसे भी काकी एक जून ही खाना खाती है और जहाँ खाना बनाने जाती है वहीं उसका भी खाना हो जाता है और खोली तो चॉल वालों ने ही काकी को दिया है और कपडे- लत्ते उनकी भी व्यव्स्था हो ही जाती है । जब काकी सबके लिए इतना कुछ करती है तो चॉल वालों की भी कुछ जिम्मेदारी बनती है न । चल छोड  तू क्यों इतना परेशान हो रही है  जा जाकर अपना काम देख कह कर माँ ने प्यार से झिडका ।
मेरा मन तो काकी के आस-पास ही घूमता रहता था। मेरे बाबा नहीं थे माँ ही सब कुछ थी पर काकी बिना संबंध के भी अपनी ही थी काकी को मुझसे बहुत स्नेह और मुझे उनके बारे में जानने की बहुत उत्सुकता ।
उस दिन मैं घर के सामने खडी थी, तभी डाकिया, काकी के नाम का एक मनीऑर्डर लेकर आया।  काकी के घर ताला लगा था,  डकिए ने मुझसे पूछा  मुझे भी ज़रा आश्चर्य हुआ कि काकी आज सुबह से मुझे भी  नहीं दिखी थी परंतु काकी के लिए मनी ऑर्डर कहाँ से आया है, यह जानने की अपनी जिज्ञासा को रोक नहीं पाई और मनी ऑर्डर को हाथ में लेकर भेजने वाले का पता देखा , मनी ऑर्डर पर हैदराबाद की मोहर थी। डाकिए से कह दिया कि काकी बाहर गई हैं  कल आना डाकिया अपनी राह चला गया और मैं असमंजस में खडी रही ।
कुछ देर बाद हाथ में एक डिब्बा लेकर काकी को आते देखा
काकी बडी खुशबू आ रही है डिब्बे में क्या है ?
काकी थकी थी पर मुस्कुरा कर  मुझे डिब्बा पकडते हुए बोली – अपने शर्मा जी के घर सगाई है तो उन्होंने लड्डू बनाने  के लिए बुलाया था तुझे लड्डू बहुत पसंद है न इसीलिए लेकर आई हूँ पर तू यहाँ अकेली क्यों खडी है अंधेरा छाने  लगा है और घर में  दियाबाती भी नहीं किया है  अभी तक माँ नहीं आई क्या ?
नहीं काकी, बस आती ही होगी, मैं अभी दिया बाती कर देती हूँ , और हाँ काकी आप के लिए हैदराबाद से एक मनीऑर्डर आया था, कौन है वहाँ?
मेरी बात सुनकर काकी  सन्न रह गई और उनके चेहरे का रंग फीका पड गया  काकी को देख कर तुरंत मैंने कहा –छोड न काकी तुझे बुरा लग रहा है तो मैं कुछ नहीं पूछूँगी
ना रे बच्चा ऐसा कुछ नहीं है चल दियाबाती करके ताला लगा कर मेरे साथ चल ।
मुझे लगा शायद काकी कुछ कहना चाहती है मुझे भी उत्सुकता थी काकी के बारे में जानने की तो मैं काकी के साथ चल पडी।  
काकी ने खोली का दरवाज़ा खोल कर चटाई बिछई और लालटेन जलाई।  
काकी सारे चॉल में बिजली है पर  तूने क्यों नहीं लगवाई  ?
रहने दे रे मुझे कौन लिखाई पढाई करनी है जो बिजली लगवाऊँ
काकी की खोली बहुत ही साफ-सुथरी थी कोई खास सामान तो नहीं था पर जो भी था करीने से सजा हुआ था । मैंने एक नज़र दौडा कर सब देख लिया था।
काकी दीवार से टिक कर पैर लंबे कर बैठ गई । बहुत थकी हुई थी । आज चॉल में भी बहुत शांति थी, नहीं तो चॉल के बच्चे, भगवान बचाए, काकी को घेर कर चिलप्पों मचाते रहते, कहानी सुनाने कि ज़िद करते , आज सब निशब्द था।
आज काकी हमेशा की तरह नहीं थी ।
काकी क्या सोच रही हो ? क्या सुबह से लड्डू बनाने में लगी रही? बहुत थक गई हो न?
कुछ नहीं रे आज बस थोडा काम अधिक था दुनिया में किसी को किसी की चिंता नहीं रहती वैसे मैं भी ऐसी ही हूँ मेरी भी तेरे जैसे एक बेटी होती तो . . . काकी कहते कहते रूक गई
हैदराबाद में आप का कोई रिश्तेदार है क्या ? मैंने फिर पूछा
हमेशा से धीर-गंभीर रहने वाली काकी फूट-फूट के रोने लगी । सभी को सांत्वना देने वाली काकी को रोते देखकर मुझे बहुत दुखः हुआ ।
क्या बात है काकी क्या हुआ ?
सारी ज़िंदगी यूँ ही गुज़र गई कोई पूछने वाला नहीं आया मेरी भी क्या ज़िंदगी है
आपको किसने पैसे भेजे काकी ? मैंने फिर पूछा
मेरे पति का बेटा होगा काकी व्यंग्य से बोली
काकी आप के पति का बेटा आपका ही बेटा हुआ न  मैंने आश्चर्य से पूछा
मेरा बेटा होता तो क्या मैं ऐसे दर-दर भटकती ‍! घर-बार-संसार पति पुत्र ये सब मेरे नसीब में नहीं है रे ...छोड न मेरी लंबी कहानी है कहते हुए आगे कहने लगी
मैं अपनी माँ के साथ रहती थी , मेरे बाबा नहीं थे माँ मुझसे बहुत प्यार करती थीं  मैं स्कूल जाती थी पर माँ ने 10 साल की उमर में मेरी पढाई छुडा दी वो मेरी शादी करा देना चाहती थी । 12 साल की उमर में मेरी शादी हैदराबाद में रहने वाले 22 साल के वकील से करवा दी गई । कुछ दिन बाद लेने आऊँगा कहा परंतु   वे मुझे लेने नहीं आए कोई न कोई बहाना बना कर आना टालते रहे इस तरह मैं विवाह के बाद भी माँ के घर ही रह गई । मगर मैं कुछ ना कह पाती बस घुटती रहती और एक एक साल गिन- गिन कर काटती जाने वो कब आए पर वो कभी नहीं आए ।
मेरे घर के  पडोस में राजू  नाम का एक लडका रहता था दिखने में अच्छा भला था और बातों में मजाकिया . . .  काकी रूक गई
आगे क्या हुआ काकी मैंने पूछा
गहरे कुँऐं से आती आवाज़ की भाँति काकी की आवाज़ आई –
मेरा यह हाल उसी के कारण हुआ। मैं बहुत सुंदर थी मेरे रूप को देख कर कई लोग जलते थे। राजू भी मुझ पर आसक्त था मैं उससे बात तो करती थी पर मैंने उसे कभी करीब आने नहीं दिया परंतु उसकी आसक्ति दिनों दिन बढती ही जा रही थी यह देख कर मैं उससे दूर रहने लगी ।
एक दिन माँ मंदिर गई थी और मैं कुँऐं पर कपडे धो रही थी । कपडे धो कर मैं अंदर जाने लगी तो सर्र की आवाज़ आई। पास से शायद एक साँप गुज़रा था मैं डर कर चकरा कर गिर गई आवाज़ सुनकर राजू दौड कर बाहर आया और मुझे उठा कर अंदर ले गया पानी पिलाया और मेरे सिर को सहलाता बैठा रहा माँ आई तो उठ कर चला गया ।
अचानक एक दिन पडोसन से माँ का झगडा हो गया। उन्होंने मेरे बारे  में बहुत अनाप-शनाप  कहा और इल्ज़ाम लगाते हुए चिठ्ठियाँ भी लिख डाली। राजू को भी बहुत अपमानित किया गया वह रोज-रोज की इस किच-किच से परेशान होकर गाँव छोड कर जाने कहाँ चला गया। मेरे पति को यही एक बहाना मिल गया कोर्ट में अर्जी डाल कर मुझसे अलग हो गए और फिर से शादी कर ली अब दो बेटे हैं मैं अकेली रह गई । मैं बंजर धरती की तरह सारी ज़िंदगी खाली पडी रही । मैं दुनिया की नज़रों में न सुहागिन बनी और न विधवा। मैं अंदर ही अंदर इस दौरान गुज़रे सारे हादसों को झेलती रही ।
इतना कह कर काकी ने लंबी सांस ली और अपनी पेटी खोल कर एक पुराना पत्र निकाला । पत्र काफी पुराना था हर मोड से फटने लगा था काकी को यह पत्र उनके पति ने बहुत ही डाँट कर लिखा था
आपने अभी तक यह पत्र क्यों संभाल कर रखा है काकी यह कोई प्रेम पत्र  तो नहीं है।
हाँ रे पर मेरे पति के द्वारा लिखा गया यह एकमात्र पत्र है इसीलिए संभाल कर रखा है । मेरी आँखें भर आयीं ।
छोड ना ये सब, मेरी चिंता मत कर, जा घर जाकर खाना खा कर सो जा कल कॉलेज भी जाना है ।
मैं भारी मन से काकी के घर से निकली। काकी की कहानी सुनकर मेरी समझ में आया कि काकी क्यों मुझे इतनी हिदायत देती हैं। सुबह की एक खबर भी दिमाग में कौंध गई कि बाल विवाह पर रोक लगाने के लिए बना कानून । सच ही है बाल विवाह के कारण मेरी काकी और न जाने कितनी काकियों का जीवन इस तरह सूना हो गया होगा। इस प्रथा पर रोक लगनी ही चाहिये।
साथ ही गाँधीजी की कही बात याद आई कि भले ही नारी शारीरिक रूप से पुरुष से कमज़ोर हो पर वह हमेशा मानसिक रूप से पुरुष से बहुत अधिक बलवान है ।
अगली सुबह डाकिए ने आवाज़ दी कि काकी बुला रही है जाने क्या बात हो गई सोच कर काकी के पास गई तो काकी बाहर ही खडी थी। आज काकी बहुत ही शांत और खुश दिख रही थी ऐसा लग रहा था जैसे उनके सर से बहुत बडा भार उतर गया हो
क्या बात है काकी ?
देख गुडिया यह मनी ऑर्डर मुझे नहीं चाहिए । मुझे न अभी और न कभी पैसे चाहिए, मुझे किसी की करूणा नहीं चाहिए, मैं अपने बलबूते  पर खुश हूँ ,आईंदा कभी मनी ऑर्डर न भेजे तू उस पर ऐसा लिख दे , और लौटा दे । डाक वाले भाई तुम इसे वापस ले जाओ ।
काकी का यह निर्णय उनके झुर्रियों से भरे मुख पर और मिर्च कूटने वालो हाथों पर मुस्कुरा कर खेलने लगी मुझे अपनी कविता याद आ गई
मैंने तो नहीं देखा है
ज़िंदगी को
पर महसूस किया है
एक चेहरे पर
ज़िंदगी को
होंठो पर हंसी सदा
आँखों में जीने की अदा
जीने की लेकर श्रद्धा ' एक वृद्धा  मेरी काकी

स्वर्ण ज्योति