Thursday, February 15, 2007

राह के दऱख्त

काश.....
राह पर खडे दऱख्त
कुछ बोल पाते
अपनी ज़बानी अपनी गवाही
दे पाते तो
कितने किस्से कह पाते
काश......
ये कुछ बोल पाते

पंथी को छाया
राही को साया
भूलों को राहें
भटकों को बाँहें
देकर भी ये हैं
कितने.... अकेले

हरियाली के मेले
हैं कितने अलबेले
छाँव में अपनी
नन्हें नीडों को पाले
पर हैं अकेले
तन्हाई का दुःख झेलें

काश.....
ये कुछ बोल पाते
तो अपनी व्यथा-कथा
अपनी दर्द बाँट पाते
काश....
राह के दऱख्त
कुछ बोल पातें.........

6 comments:

Mohinder56 said...

बेहद सुन्दर भाव से लिखी गये शब्द हैं आप की कविता में... मूक वृक्षों का अन्तर्नाद है

मेरे ब्लाग http://dilkadarpan.blogspot.com पर पधार कर अपनी टिप्पणी से मेरी रचनाओं का मुल्याकंन करने की कृपा करें
विशेष रूप से मेरी एक कविता "केवल संज्ञान है" जो http://merekavimitra.blogspot.com पर प्रेषित है आप की टिप्पणी की प्रतीक्षा में है

मोहिन्दर

Monika (Manya) said...

दरख्तॊं के माध्यम से मन की वेदना, उसके एकाकीपन का भाव्पूर्ण चित्रण है..

Divine India said...

नमस्कार स्वर्णा जी,
अच्छा माध्यम चुना…बहुत अच्छा लगा…दरख़्ते मानवता के जड़त्वता का प्रतिनिधित्व करती हैं…
हम आते है छाया लेकर गुजर जाते हैं,वो बांहे फैला
पुन: हमारी राह तकता है…मिटाएगा शायद मेरा अकेलापन यही आश तकता है…और पीछे से बहुत-2 हाथ भी हिलाता है… है न…!!!
भाव हृदय के कलम से उकेरे गये हैं…बधाई स्वीकरे!!

ghughutibasuti said...

बहुत सुन्दर कविता है । वृक्षों का अकेलापन ! अच्छे भाव हैं ।
घुघूती बासूती
ghughutibasuti.blogspot.com

Reetesh Gupta said...

मन के भावों की सरल एवं धाराप्रवाह अभिव्यक्ति
...सुदंर रचना ...बधाई

Sagar Chand Nahar said...

काश.....
ये कुछ बोल पाते
तो अपनी व्यथा-कथा
अपनी दर्द बाँट पाते
काश....
राह के दऱख्त
कुछ बोल पातें....

आपने दरख्तों की पीड़ा को ही तो शब्द दिये हैं, वाकई बहुत अकेले होतें हैं दरख्त। पंथी और पंखी ओ छाया , भूलों को राहें और भटकों को बाँहे दिखाने के बाद जब जिसकी इच्छा होती है कुल्हाड़ी के वार से इन्हें धाराशायी कर देता है।
बहुत सुन्दर कविता
॥दस्तक॥