Friday, March 09, 2007


काग़ज़ और कलम

एक दिन जब मैंनें
कुछ शब्द लिखें
तत्क्षण काग़ज़ पर
कुछ आँसू देखे

हर्फ़ सब हुए थे तर
रंग हुआ था बदतर
हादसा था अज़ीब
कह रहा था काग़ज़
कलम से अपना नसीब

तुम मुझ पर क्यों हो फिरती
रंगरूप मेरा बिगाड हो देती
मुझे काले-नीले रंगों से
क्यिं हो भर देती
किसी के अस्तित्व को निखार
मुझे कलंकित हो कर देती

मैं नहीं मानती
तुम्हारा तर्क
तुम्हारी क्या कीमत
बिना हर्फ़
रहोगे कोरे तो
पडे रहोगे कोने में
मैंनें ही पहुँचाया है
तुमको कोने-कोने में

छोडो यूँ न करो तकरार
बढाओ न बात को बेकार
एक शाश्वत सत्य यह जान लो
तुम दोनों हो समान मान लो


यह कविता सृजन गाथा पत्रिका में भी छप चुकी है

3 comments:

अनूप शुक्ल said...

बढ़िया कविता लिखी है!

Anonymous said...

आप तो बहुत अच्छी कविता लिखती हैं | बहुत अच्छा लगा पढ़ कर जिस प्रकार से आपने भावनाओं को शब्दों में उतारा है | काफ़ी समय से नई कविता नहीं दिखी आप की | कविताएँ लिखती रहें |

- नंदा
हिंदी में लिखने के लिए quillpad.in का प्रयोग करके देखें |

Swarna Jyothi said...

नन्दा जी नमस्कार और धन्यवाद पुनः कार्य आरंभ किया है नई रचनाओं को भी आप की प्रतिक्रिया अपेक्षित है।