Friday, March 09, 2007

पानी

पानी रे पानी
तेरा नहीं कोई सानी

तेरा नहीं कोई रंग
पर निराले तेरे ढंग

तू जीवन की रस धार
तुझमें बसे सारा संसार

कभी बूँदें तो कभी बौछारें
कभी बरखा तो कभी बाढें

तेरे कितने ही नाम
पूजे हम तेरे धाम

कहीं तू माता तो कहीं सुता
कहीं तू पुत्र तो कहीं मित्र

तेरा विचित्र रूप सुनामी
बना गया जीवन को बेमानी

तेरी लीला अपरम्पार
तू लगाए भव सागर पार

पानी रे पानी
तेरा नहीं कोई सानी

यह कविता पाँडीचेरी में सुनामी से हुई
तबाही पर लिखी गई थी।

काग़ज़ और कलम

एक दिन जब मैंनें
कुछ शब्द लिखें
तत्क्षण काग़ज़ पर
कुछ आँसू देखे

हर्फ़ सब हुए थे तर
रंग हुआ था बदतर
हादसा था अज़ीब
कह रहा था काग़ज़
कलम से अपना नसीब

तुम मुझ पर क्यों हो फिरती
रंगरूप मेरा बिगाड हो देती
मुझे काले-नीले रंगों से
क्यिं हो भर देती
किसी के अस्तित्व को निखार
मुझे कलंकित हो कर देती

मैं नहीं मानती
तुम्हारा तर्क
तुम्हारी क्या कीमत
बिना हर्फ़
रहोगे कोरे तो
पडे रहोगे कोने में
मैंनें ही पहुँचाया है
तुमको कोने-कोने में

छोडो यूँ न करो तकरार
बढाओ न बात को बेकार
एक शाश्वत सत्य यह जान लो
तुम दोनों हो समान मान लो


यह कविता सृजन गाथा पत्रिका में भी छप चुकी है