नासमझ
मौन ही ग़र तेरी भाषा होती तो
मैं सब कुछ समझ लेता पर
तेरी तो निराली अदा निकली जो
चुप रहकर भी बोल निकली
कुछ कही-अनकही बातों से
कुछ बुझी-अनबुझी निगाहों से
तेरी दास्तां का इल्म न मुझे हो सका
फिर कैसे कहूं सब समझ सका
थर्राते लबों को इकरार समझूँ
या बहते अश्कों को इनकार
झुकी पलकों को समझूँ हया
या समझूँ सुर्ख गालों को बला
तेरी ज़ुल्फ़ों के साए में
कैद होकर रह गया हूँ मैं
दिल मे मेरा गया है उलझ
कैसे समझाऊँ ओ नासमझ
मौन ही ग़र तेरी भाषा होती तो
मैं सब कुछ समझ लेता पर
तेरी तो निराली अदा निकली जो
चुप रहकर भी बोल निकली
कुछ कही-अनकही बातों से
कुछ बुझी-अनबुझी निगाहों से
तेरी दास्तां का इल्म न मुझे हो सका
फिर कैसे कहूं सब समझ सका
थर्राते लबों को इकरार समझूँ
या बहते अश्कों को इनकार
झुकी पलकों को समझूँ हया
या समझूँ सुर्ख गालों को बला
तेरी ज़ुल्फ़ों के साए में
कैद होकर रह गया हूँ मैं
दिल मे मेरा गया है उलझ
कैसे समझाऊँ ओ नासमझ
2 comments:
हृदयाकाश में मोती बिखेरते ये शब्द उजले और शांत
स्वर से संगीत छेड़ने लगा है…एक पूर्ण कविता जो प्रत्येक भाव को स्पष्ट करती मंजिल की ओर पहुँचती है…बधाई स्वीकारें।
धन्यवाद!
धन्यवाद आप की प्रतिक्रिया स्वयं एक कविता से कम नहीं है आप को भी बधाई आप यूँही संपर्क बनाए रखिएगा हौसला बढाते रहिएगा एक बार फिर धन्यवाद
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