Wednesday, November 15, 2006

हम सभी ने उडते हुए बादलों को देखा है। कई आकार-प्रकार के रूप में देखा है। उन बादलों को देख कर आप के मन में क्या ख्याल आया होगा यह तो मैं नहीं जानती पर मेरे मन में उन बादलों से बात करने की चाह हुई मैं बात भी की जवाब क्या मिला जानते हैं-----जवाब तो मिला पर मैंने बातों ही बातों में उसे चुनौती भी दे दी कैसे ---कुछ ऐसे--

खामोश चुनौती

मैंने बादल से कहा
तुम पर एक कविता
लिखना चाहता हूँ

बादल हँसा..... व्यंग्य से
पूछा उसने.....
क्या तुम्हारी कविता
है मुझ सी रंगी....?
मैंने कहा.....नहीं

क्या तुम्हारी कविता
चंचल, चपल, शांत और
है गंभीर....?
मैंने कहा....... नहीं

धरती आकाश में समाहित
ऐसा मेरा सारा व्यक्तित्व
सॄष्टि के नियम के संग-संग
रचा मेरा अस्तित्व

क्या तुम्हारी कविता
सुंदर मोहक शीतलता
से है शोभिता
मैंने कहा ..... नहीं पता

बादल बोला
जब जीवन के रंग ही न हो
तो कविता क्या
ख़ाक लिखोगे.....?
मैं निरूत्तर
मौन हो गया ।

3 comments:

गिरिराज जोशी said...

॰॰॰ और आपकी इस कविता को पढ़कर मैं निरूत्तर हो गया।

आपके लिए चंद पंक्तियाँ -

किस गुरूर में जी रहा है जाने यह पर्वत भी
नोक आपके कलम की देखी नहीं शायद ॰॰॰

Sagar Chand Nahar said...

बहुत सुन्दर भाव है कविता के
क्या हम बादल को निरूत्तर नहीं कर सकते, आप को बादल से पूछना था क्या लड़ाई झगड़ा, दंगा- फ़साद आदि सब उसके पास है? :)

Anonymous said...

kavita sunder hai, parantu main iske kisi dusre tarah se ant ki aasha kar raha tha parantu nischit roop se ye aap ki kavita hai aur aap jaise bhi samapt karen vo uchit aur sahi hai